क्रांति १८५७
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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

क्रांतिकारी महिलाए

1.  रानी लक्ष्मी बाई
2.  बेगम ह्जरत महल
3.  रानी द्रोपदी बाई
4.  रानी ईश्‍वरी कुमारी
5.  चौहान रानी
6.  अवंतिका बाई लोधो
7.  महारानी तपस्विनी
8.  ऊदा देवी
9.  बालिका मैना
10.  वीरांगना झलकारी देवी
11.  तोपख़ाने की कमांडर जूही
12.  पराक्रमी मुन्दर
13.  रानी हिंडोरिया
14.  रानी तेजबाई
15.  जैतपुर की रानी
16.  नर्तकी अजीजन
17.  ईश्वरी पाण्डेय

 

1.  रानी लक्ष्मी बाई

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका था। सब उनको प्यार से मनु कह कर पुकारा करते थे। उनके पिता का नाम मोरपंत व माता का नाम भागीरथी बाई था जो धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके पिता ब्राह्‌मण थे। सिर्फ़ 4 साल की उम्र में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी इसलिये मनु के पालन पोषण की जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई थी। मनु ने बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ शिकार करना, तलवार-बाजी, घुड़सवारी आदि विद्याएँ सीखी। उनके विषय में एक रचनाकार ने लिखा है :

चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।
बुन्देले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी ।

1842 में मनु की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। शादी के बाद मनु को लक्ष्मी बाई नाम दिया ग़या। 1851 में इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन मात्र 4 महीने बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। उधर उनके पति का स्वास्थ्य बिगड़ गया तो सबने उत्तराधिकारी के रू प में एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी। इसके बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। 21 नवम्बर 1853 को महाराजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई। इस समय लक्ष्मी बाई 18 साल की थी और अब वो अकेली रह गई लेकिन रानी ने हिम्मत नहीं हारी व अपने फ़र्ज को समझा।

जब दामोदर को गोद लिया गया उस समय वहा ब्रितानियों का राज था। ब्रिटिश सरकार ने बालक दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया व झांसी को ब्रितानी राज्य में मिलाने का षड़यंत्र रचा। जब रानी को पता लगा तो उन्होंने एक वकील की मदद से लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। लेकिन ब्रितानियों ने रानी की याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वे झांसी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे।

मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया साथ ही उनकी सालाना राशि में से 60,000 रू पये हर्जाने के रू प में हड़प लिये। लेकिन रानी ने निश्चय किया की वह झांसी को नहीं छोडेगी। रानी देशभक्त व आत्मगौरव शील महिला थी। उन्होंने प्रण लिया की वह झांसी को आजाद करा कर के ही दम लेंगी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके हर प्रयास को विफ़ल करने का प्रयास किया।

रानी ने एक सेना सगं़ठित की। इसमें सामान्य जनता को भी शामिल किया गया। इस सेना में महिलाओं को भी भर्ती किया गया। उनको भी घुड़सवारी, तलवार- बाजी, शिकार, आदि का प्रशिक्षण दिया गया।

झांसी के पड़ौसी राज्य ओरछा व दत्तिया ने 1857 में झांसी पर हमला किया। लेकिन रानी ने उनके इरादों को नाकामयाब कर दिया। 1858 में ब्रिटिश सरकार ने
झांसी पर हमला कर उसको घेर लिया व उस पर कब्जा कर लिया। लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने पुरुषों की पोशाक धारण की, अपने पुत्र को पीठ पर बांधा। दोनों हाथों में तलवारें ली व घोडे़ पर सवार हो गई व घोड़े की लग़ाम अपने मँुह में रखी व युद्ध करते हुए दुश्मनों के दांत खट्टे किये। झंासी से निकलने के लिये उन्हें बहुत संघर्षर् करना पड़ा, अन्त में रानी अपने दत्तक पुत्र व कुछ सहयोगियों के साथ वहां से भाग निकली और तांत्या टोपे से मिलने कालपी जा पंहुची। वहां रानी के साथस्वतंत्रता आंदोलन के अन्य संगठन जुड़ गये। तांत्या टोपे भी इन संगठनों के सदस्य थे। अब रानी ने ग्वालियर की और रुख किया तो रानी को फ़िर से शत्रुओं का सामना करना पड़ा। रानी में साहस व देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसलिये उन्होंने उनका सामना किया व युद्ध किया। युद्ध के दूसरे ही दिन (18जून 1858) भारत की आजादी के लिये चलने वाले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 22 साल की महानायिका लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गई।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी ,स्वयं वीरता की अवतार।
देख मराठे पुलकित होते, उनकी तलवारों के वार।


2.  बेगम ह्जरत महल

बेगम हजरत महल 1857 की क्रांति की एक महान क्रांतिकारी महिला थी। एक ब्रितानी इतिहासकार ने उन्हें नर्तकी बताया है। यह अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम बन गई। उनमें अनेक गुण विद्यमान थे। 1857 की क्रांति का व्यापक प्रभाव कानपुर,
झांसी, अवध, लखनऊ, दिल्ली, बिहार आदि में था।

1857 में डलहौजी भारत का वायसराय था। उसी साल वाजिद अली शाह भी लखनऊ के नवाब बने। अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर विलासी होने के आरोप में उन्हें हटाने की योजना बना ली गई थी। डलहौजी नवाब के विलासिता पूर्ण जीवन से परिचित था। उन्होंने तुरंत अवध की रियासत को हड़पने की योजना बनाई। पत्र लेकर कंपनी का दूत नवाब के पास पहुँचा और उस पर हस्ताक्षर के लिये कहा। शर्त के अनुसार कंपनी का पूरा अधिकार अवध पर स्थापित हो जाना था। वाजिद अली ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किया, फ़लस्वरू प उन्हें नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया गया। अब क्रांति का बीज बोया जा चुका था। लोग सरकार को उखाड़ फ़ेंकने की योजनाएं बना रहे थे। 1857 में मंगल पांडे के विद्रोह के बाद क्रांति मेरठ तक फ़ैली। मेरठ के सैनिक दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह से मिले। बहादुर शाह और ज़ीनत महल ने उनका साथ दिया और आजादी की घोषणा की।

इधर क्रांति की लहर अवध, लखनऊ, रुहेलखंड आदि में फ़ैली। वाजिद अली शाह के पुत्र को 11 साल की आयु में अवध के तख्त पर बैठाया गया। राज्य का कार्यभार उनकी माँ बेगम हजरत महल देखती थी क्योंकि वे नाबालिग थे। 7 जुलाई 1857 से अवध का शासन हजरत महल के हाथ में आया।

बेगम हजरत महल ने हिन्दू, मुसलमान सभी को समान भाव से देखा। अपने सिपाहियों का हौसला बढ़ाने के लिये युद्ध के मैदान में भी चली जाती थी। बेगम ने सेना को जौनपुर और आजमगढ़ पर धावा बोल देने का आदेश जारी किया लेकिन ये सैनिक आपस में ही टकरा ग़ये। ब्रितानियों ने सिखों व राजाओं को खरीद लिया व यातायात के सम्बंध टूट गए। नाना की भी पराजय हो गई। 21 मार्च को लखनऊ ब्रितानियों के अधीन हो गया। अन्त में बेगम की कोठी पर भी ब्रितानियों ने कब्जा कर लिया। 21 मार्च को ब्रितानियों ने लखनऊ पर पूरा अधिकार जमा लिया। बेगम हजरत महल पहले ही महल छोड़ चुकी थी पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बेगम हजरत महल ने कई स्थानों पर मौलवी अहमदशाह की बड़ी मदद की। उन्होंने नाना साहब के साथ सम्पर्क कायम रखा।

लखनऊ के पतन के बाद भी बेगम के पास कुछ वफ़ादार सैनिक और उनके पुत्र विरजिस कादिर थे। 1 नवम्बर 1858 को महारानी विक्टोरिया ने अपनी घोषणा द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत में समाप्त कर उसे अपने हाथ में ले लिया। घोषणा में कहा गया की रानी सब को उचित सम्मान देगी। परन्तु बेगम ने विक्टोरिया रानी की घोषणा का विरोध किया व उन्होंने जनता को उसकी खामियों से परिचित करवाया।

बेगम लड़ते-लड़ते थक चुकी थी और वह चाहती थी कि किसी तरह भारत छोड़ दे। नेपाल के राजा जंग बहादुर ने उन्हें शरण दी जो ब्रितानियों के मित्र बने थे। बेगम अपने लड़के के साथ नेपाल चली गई और वहीं उनका प्राणांत हो गया। आज भी उनकी कब्र उनके त्याग व बलिदान की याद दिलाती है।


3.  रानी द्रोपदी बाई

रानी द्रोपदी बाई निःसंदेह भारत की एक प्रसिद्ध वीरांगना हो गई है जिनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है लेकिन इतिहास में रानी द्रोपदी बाई का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने कभी भी सरकार की ख़ुशामद नहीं की। एक छोटी सी रियासत धार की रानी द्रौपदी बाई ने अपने कर्म से यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय ललनाओं की धमनियों में भी रणचंडी और दुर्गा का रक्त ही प्रवाहित होता है। रानी द्रौपदी बाई धार क्षेत्र की क्रांति की सूत्रधार थी। ब्रितानी उनसे भयभीत थे। धार मध्य भारत का एक छोटा-सा राज्य था। 22 मई 1857 को धार के राजा का देहावसान हो गया। आनन्दराव बाल साहब को उन्होंने मरने के एक दिन पहले गोद लिया। वे उनके छोटे भाई थे। राजा की बड़ी रानी द्रौपदी बाई ने ही राज्य भार सँभाला, कारण आनन्दराव बाला साहब, नाबालिग़ थे।

अन्य राजवंशों के विपरीत ब्रितानियों ने धार के अल्पव्यस्क राजा आनन्दराव को मान्यता प्रदान कर दी। उन्हें आशा थी कि ऐसा करने से धार राज्य उनका विरोध नहीं कर सकता, लेकिन रानी द्रौपदी के ह्रदय में तो क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। रानी ने कार्य-भार सँभालते ही समस्त धार क्षेत्र में क्रांति की लपटें प्रचंड रू प से फैलने लगीं।

रानी द्रौपदी बाई ने रामचंद्र बापूजी को अपना दीवान नियुक्त किया। बापूजी ने सदा उनका समर्थन किया इन दोनों ने 1857 की क्रांति में ब्रितानियों का विरोध किया। क्रांतिकारियों की हर संभव सहायता रानी ने की। सेना में अरब, अफ़ग़ान आदि सभी वर्ग के लोगों को नियुक्त किया। अँग्रेज़ नहीं चाहते कि रानी देशी वेतन भोगी सैनिकों की नियुक्ति करें। रानी ने उनकी इच्छा की कोई चिंता न की। रानी के भाई भीम राव भोंसले भी देशभक्त थे। धार के सैनिकों ने अमझेरा राज्य के सैनिकों के साथ मिलकर सरदार पुर पर आक्रमण कर दिया रानी के भाई भीम राव ने क्रांतिकारियों का स्वागत किया। रानी ने लूट में लाए गए तीन तोपों को भी अपने राजमहल में रख लिया। 31 अगस्त को धार के कीलें पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया। क्रांतिकारियों को रानी की ओर से पूर्ण समर्थन दिया गया था। अँग्रेज़ कर्नल डयूरेड ने रानी के कार्यों का विरोध करते हुए लिखा कि आगे की समस्त कार्य वाई का उत्तरदायित्व उन पर होगा।

धार की राजमाता द्रौपदी बाई एवं राज दरबार द्वारा विद्रोह को प्रेरणा दिए जाने के कारण कर्नल डयूरेंड बहुत चिंतित हो गए। उन्हें भय था कि समस्त माल्वान् क्षेत्र में शीघ्र क्रांति फैल सकती है। नाना साहब भी उसके आस-पास ही जमे हुए थे। जुलाई 1857 से अक्टूबर 1857 तक धार के क़िले पर क्रांतिकातियों के बीच एक समझौता हो गया। क्रांतिकारियों के नेता गुलखान, बादशाह खान, सआदत खान स्वयं रानी द्रौपदी बाई के दरबार में आए। क्रांतिकारी अँग्रेज़ों को बहुत परेशान किया करते थे। वे उनके डाक लूट लेते। उनके घरों में आग लगा दी।

ब्रिटिश सैनिकों ने 22 अक्टूबर 1857 को धार का क़िला घेर लिया। यह क़िला मैदान से 30 फ़िट ऊँचाई पर लाल पत्थर से बना था। क़िले के चारों ओर 14 ग़ोल तथा दो चौकोर बुर्ज बने हुए थे। क्रांतिकारियों ने उनका डटकर मुक़ाबला किया। ब्रितनियों को आशा थी कि वे शीघ्र आत्म सर्मपण कर देंगे पर ऐसा न हुआ। 24 से 30 अक्टूबर तक संघर्ष चलता रहा। क़िले की दीवार में दरार पड़ने के कारण ब्रितानी सैनिक क़िले में घुस गए। क्रांतिकारी सैनिक गुप्त रास्ते से निकल भागे।

कर्नल ड़्यूरेन्ड़ तो पहले से ही रानी का विरोधी था। उसने क़िले को ध्वस्त कर दिया। धार राज्य को ज़ब्त कर लिया गया। दीवान रामचंद्र बापू को बना दिया गया। 1860 में धार का राज्य पुनः अल्पव्यस्क राजा को व्यस्कता प्राप्त करने पर सौंप दिया गया।

रानी द्रौपदी बाई धार क्षेत्र के क्रांतिकारियों को प्रेरणा देती रही। उन्होंने बहादुरी के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। यह अपने आप में कम नहीं थी निःसंदेह रानी द्रौपदी बाई एक प्रमुख क्रांति की अग्रदूत रही है।


4.  रानी ईश्‍वरी कुमारी

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में गोरखपुर के निकट तुलसीपुर की रानी ईश्वर कुमारी का अमर त्याग उल्लेखनीय है। यह बात दुसरी है कि उनके अमर यश से कम लोग परिचित है।

तुलसीपुर 1857 में बहुत ही छोटा एक जनपद था। वहाँ के शासक राजा दृगनाथ सिंह थे उन्हें ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ काम करने पर नजरबन्द कर लिया गया था। नजरबन्दी के दौरान उनकी मृत्यु हो गई।

रानी ईश्वर कुमारी ने अपनी रियासत सम्भाली। 1857 की क्रांति में रानी ने कम्पनी सरकार का विरोध किया। उन्हे कम्पनी की ओर से यह संदेश दिया गया की वह सरकार के साथ मिल जाए अन्यथा राज्य हडप लिया जाएगा। रानी ईश्वर कुमारी ने सीमित साधन रहते हुए भी युद्ध करने का निर्णय लिया।

13 जनवरी, 1859 के एक दस्तावेज के अनुसार च्गदर में राजा दृगनाथ सिंह की रानी ने ब्रिटिश राज्य के खिलाफ़ बहुत बड़े पैमाने पर विद्रोह किया था।छ शाही फ़रमान के आगे वह झुकी नहीं। इसीलिए उनका राज्य छीनकर बलरामपुर राज्य में मिला लिया गया था। रानी को बहुत प्रलोभन दिए गए कि वह हथियार डाल दे व ब्रितानियों की सत्ता स्वीकार कर ले। तब उनका जप्त किया हुआ राज्य उन्हें वापस कर दिया जाएगा। पर रानी ने आत्मसमर्पण के बजाय बेगम हजरत महल की तरह देश के बाहर निर्वासित जीवन बिताना स्वीकार किया। यह विचार असिस्टेन्ट कमिश्नर मेजर बैरव ने व्यक्त किया।

रानी ईश्वर कुमारी अपने अस्तित्व के लिए लड़ती रही। वह हार नहीं मानती युद्ध में विजय या पराजय तो होती ही रहती है। सरकार ने इन वीरांगना पर जो अत्याचार किया उसे याद कर रोंगटे खडे हो जाते है।

ईश्वर कुमारी समझ गयी कि विशाल ब्रिटिश सेना का मुकाबला नहीं कर सकती। शत्रुओं के हाथों मरने की अपेक्षा स्वयं मरना श्रेयष्कर है। उन्होंने तुलसीपुर छोड़ने का निर्णय लिया। मातृभूमि को नमन कर ईश्वर कुमारी नेपाल के जंगलों में जा छिपी। सुनते है कि बेगम हजरत महल के साथ रानी का घनिष्ट सम्पर्क था। हजरत महल ईश्वर कुमारी के यहां कुछ दिनों तक ठहरी हुई थी।

ईश्वर कुमारी के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है। नेपाल में उनकी गतिविधियां क्या थी? इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता। मालूम पडता है रानी का देहावसान नेपाल में ही हुआ था। इतिहास इस पर मौन है। रानी के शौर्य एवं उत्साह से ब्रितानी सेनापति भी परिचित थे। ईश्वर कुमारी नि:सन्देह भारतवर्ष की एक बहादुर वीरागंना हो गयी है जिन पर हमें गर्व होना चाहिए।

5.  चौहान रानी

इतिहास में बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तियों के नाम भी छोड़ दिए जाते है। उन्हीं की चर्चा इतिहास में होती है, जो या तो बहुत यश प्राप्त कर लेते है या उनके बारे में प्रभावशाली व्यक्ति लिखते है। चौहान रानी ने 1857 की क्रांति में अहम भूमिका अदा की थी। फिर भी इतिहास में उनकी बहुत कम चर्चा है। नि:संदेह उन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि स्त्रियों में भी दुश्मनों से लोहा लेने की शक्ति है। वे केवल आमोद-प्रमोद की साधन नहीं बल्कि साहस और उत्साह की भी प्रतीक है। चौहान रानी भारत की एक बहादुर महिला थी, जिन्होंने अपने शौर्य से ब्रिटिश सत्ता को भी आश्चर्यचकित कर दिया था।

चौहान रानी अनूपनगर के राजा प्रताप चंडी सिंह की पत्नी थीं। प्रताप चंडी सिंह के मरने पर उन्होंने ही अनूपनगर का शासन सँभाला था। अन्य रियासतों की तरह कँपनी सरकार ने अनूपनगर को भी हड़प लिया था। रानी अवसर की तलाश में थी।

दिल्ली के अंतिम शासक बहादुर शाह जफ़र ने क्रांति में भाग लेने का निर्णय लिया। उन्होंने भारत के अनेक राजाओं और नवाबों को पत्र लिखकर क्रांति में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था।

चौहान रानी ने बहादुर शाह की ओर से 1857 की लड़ाई में भाग लिया था। संघर्ष जमकर हुआ। रानी हार मानने वाली नहीं थी। एक इतिहासकार के अनुसार रानी ने मई 1857 में अपने खोए हुए राज्य पर अधिकार कर लिया। ब्रिटिश सिपाही मारे गए। उनके ख़ज़ाने लूट लिए गए। 15 महीने तक अनूपनगर पर रानी का शासन चलता रहा। 1858 के अंत होते-होते ब्रिटिश सरकार ने क्रांति को कुचलने में सफलता प्राप्त कर ली थी। अनूपनगर फिर उनके अधीन जो गया था।

चौहान रानी के साथ सरकार ने बड़ा दुर्व्यहार किया। रानी को अपनी जान बचाने के लिए शहर छोड़कर भागना पड़ा। यह ठीक पता नहीं कि रानी को पेन्शन दी या नहीं, रानी ने कोई सरकार से संधि की या नहीं।


6.  अवंतिका बाई लोधो

1857 की आज़ादी की लड़ाई में मध्य प्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंतिका बाई लोधी का भी नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। रामगढ़ मध्य प्रदेश के मांडला ज़िले में 1857 में एक छोटा-सा कस्बा था। वहाँ के अंतिम राजा लक्ष्मण सिंह थे, जिनकी मृत्यु 1850 ई. में हो गई। लक्ष्मण सिंह के मरने के बाद उसके राजकुमार विक्रमजीत सिंह ने गद्दी सँभालीं। दुर्बल मस्तिष्क होने के कारण वह बहुत दिनों तक शासन नहीं चला सका। डलहौज़ी की हडपनीति का रामगढ भी शिकार हुआ। रानी की इच्छा के विपरीत वहाँ एक तहसीलदार नियुक्त किया गया ओर राजपरिवार को पेन्शन दे दी गई। रानी घायल सिंहनी की तरह समय का इंतज़ार कर रही थी।

कँपनी सरकार की दुर्नीति के चलते 1857 में क्रांति भड़क उठी। इस क्रांति में केवल सिपाहियों ने ही नहीं अनेक राजाओं और महाराजाओं ने भी भाग लिया। झाँसी, सतारा, कानपुर, मेरठ सभी जगह क्रांति के झंडे फहराने लगे।

रामगढ की रानी भला इस क्रांति से अपने को कैसे अलग रख सकती थी। जुलाई 1857 में उन्होंने क्रांतिछेड दी। सरकार द्वारा स्वयं युद्ध का नेतृत्व करने लगी। उसके विद्रोह की ख़बर जबलपुर के कमिश्नर तक पहुँचीं। कमिश्नर ने रानी को पत्र द्वारा निर्देश दिया कि मण्ड़ाला के डिप्टी कलेक्टर से मिले। उन्हें यह संदेश मिला कि सरकार के साथ संधि कर ले अथवा परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे। अवंतिका बाई लोधी ने कमिश्नर के आदेश का उल्लंघन करते हुए पूरी शक्ति के साथ सरकार का विरोध किया। रानी ने सरदारों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा- च् भाइयों जब भारत माँ ग़ुलामी की जज़ीरों से बँधी हो तब हमें सुख से जीने का कोई हक़ नहीं। माँ को मुक्त करवाने के लिए ऐशो-आराम को तिलांजलि देनी होगी ख़ून देकर ही आप अपने देश को आज़ाद करा सकते है।छ

रानी ने अपने व्यक्तित्व से समस्य सैनिकों में अपूर्व उत्साह भरा, युद्ध जमकर हुआ। सरकारी फ़ौज को मुँह की खानी पडं़ी।

1 अप्रैल 1858 को ब्रितानी 1858 को ब्रितानी रामगढ़ पर टूट पडे़। रानी ने तलवार उठाई। सैंकड़ों सिपाही हताहत हुए। सेनापति को अपनी जान लेकर भागना पड़ा लेकिन ब्रितानी भी हार मानने वाले नहीं थे। वाशिंगटन के नेतृत्व में अधिक सैन्य बल के साथ पुन: रामगढ पर आक्रमण किया गया। इस बार भी रानी के कृ तज्ञ और बहादुर सैनिकों ने ब्रितानियों को मैदान चेड़ने के लिए बाध्य किया। यह युद्ध बड़ा चोकहर्षक था। दोनों तरफ़ के अनेक बहादुर सिपाही वीरगति को प्राप्त हुए। रानी की ललकार पर रामगढ की सेना दुश्मनों पर टूट पड़ती। अवंतिका बाई के सफल नेतृत्व के कारण वाशिंगटन को पुन: मैदान छोड़ना पड़ा।

रानी के सिपाही लड़ते-लड़ते थक चुके थे। राशन की कमी होने लगी फिर भी रानी ने सैनिकों में उत्सह भरा, उनकी कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया। उसे पता था कि ब्रितानी अपनी हार सदा स्वीकार नहीं करेंगे। नए सिरे से सैनिकों का संगठन किया गया। रानी की शंका सही सिद्ध हुई। तीसरी बार बड़ी तैयारी के साथ ब्रितानी सिपाही रामगढ पर टूट पड़े। घमासान युद्ध हुआ। रानी बहादुरी से लड़ी। अनेक सिपाही मारे गए।

रानी समझ गई की विजय भी उनके पक्ष में नहीं। वह अपने कुछ सैनिकों के साथ जंगलों भाग गई और गुरिल्ला युद्ध का संचालन करने लगी। आशा थी कि रीवां नरेश रामगढ की मदद क रेंगे पर उन्होंने ब्रितानियों का साथ दिया।

हिम्मत की भी हद होती है केवल बहादुरी से काम कब तक चलता? न संगठित सेना थी, न विशाल आधुनिक शस्त्रागार ही। रानी ने अँग्रेज़ों के हाथों मरने की अपेक्षा स्वयं अपनी जान देना ज़्यादा उचित समझा। उसने खुद ही अपनी तलवार से अपना सीना चीर लिया। भारत माँ को मुक्ति के लिए इस महान नारी के बलिदान को हम सदा याद रखेंगे।


7.  महारानी तपस्विनी

भारतीय वा'्‌गमय में बतलाया गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। भगवान श्री राम के अवध को स्वर्ग से भी बढ़कर माना है। गोस्वामी तुलसी दाम जी ने भगवान श्री राम से अवध की महिमा का वर्णन निन्मलिखित चौपाइयों में किया है;

"सुनूँ कपीस अंगद लंकेश, पावनपुरी रूचिर यह देश।
यद्यपि सब बैकुण्ट बखाना, वेद पुरान विदित जग जाना।
अवध पुरी सम प्रिय नहीं सोऊ, यह प्रसंग जानेऊ कोऊ-कोऊ।
जन्म भूमि ममपुरी सुहावनी, उत्तर दीशि वह सरजू पावनी।
जे भजनते विनहिं प्रयासा, मम समीप पर पावहिं बासा।
अति प्रिय मोहि यहाँ के बासी, ममधामदा पुरी सुख राशि।"

इससे पता चलता है कि भारतीय साहित्य में जन्म-भूमि के प्रेम की महिमा का वर्णन मिलता है। महाकवि सुमित्रानन्द ने भी लिखा है कि- च् जननी जन्मभूमि प्रिय अपनी, जो स्वर्गादभि चिर गरियसी छ (जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।

जो व्यक्ति अपने देश को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते हैं, वे सभी वरेण्य हैं। इस सम्बन्ध में एक कवि ने तो यहाँ तक लिखा है कि-

"जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं नर पशु और मृतक समान है।"

भारत माँ को अपने सपूतों पर गर्व हैं, जिन्होंने उनकी मर्यादा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व लूटा दिया। इतिहास में ऐसे कई लाल हुए हैं, जिन्होंने अपनी जान से भी अधिक महत्व इस देश की आजादी को दिया। यही कारण है कि कृतज्ञ भारत उन्हें हमेशा याद रखता आया है और आगे भी रखेगा।

भारतीयों ने ब्रितानियोंें की दासता से मुक्ति प्राप्त करने हेतु सर्वप्रथम प्रयास 1857 ईं. में किया था, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नाम से भी जाना जाता है। वैसे महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी ने मुस्लिम शासन के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया था। पर अँग्रेज़ी सत्ता को नष्ट करने का पहला प्रयास 1857 ई. में ही हुआ था, जिसमें न केवल क्रांतिकारियों ने अपितु भारतीय जनता ने भी खुलकर भाग लिया था। अँग्रेज़ और कुछ भारतीय चाटुकार इतिहासकार भले ही अपनी संतुष्टि के लिए सिपाही विद्रोह मानते हों, परंतु वास्तव में यह जन मानस का विद्रोह था। इसमें असंख्य लोग मारे गए। कुछ को भयंकर यातनाएँ दी गई, कुछ को ज़िंदा अग्नि देव का भेंट चढ़ा दिया गया, परंतु भारत भूमि इससे विचलित नहीं हुई।

जिन महानतम विभूतियों ने जीवन पर्यंत ब्रिटिश सरकार का विरोध किया, महारानी तपस्विनी भी उनमें से एक थी। उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जनसाधारण तक को भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनके आदेशानुसार देशभक्त साधु के वेश में, क्रांति का गुप्त रूप से प्रचार करते रहे। उनके भक्त, छावनियों में भी संदेश पहुँचाते थे। संदेश के शब्द इस प्रकार थे- च् बहादुरों जब भारत माँ बंदी हो, तुम्हें चैन से सोने का हक़ नहीं। नौजवानों! उठो भारत भूमि को फ़िरंगियों से मुक्त कराओ। छ यह दुर्भाग्य की बात है कि महारानी तपस्विनी को इतिहास के पन्नों में उचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। यदि अनुसन्धानकर्ता एवं बुद्धिजीवी वर्ग भूले-बिसरे क्रांतिकारियों की उपलब्धियों से जनसाधरण को अवगत करा सके, तो हम उनके हमेशा के लिए कृतज्ञ रहेंगे।

महारानी तपस्विनी बाई का झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से निकट का संबंध था। आशा रानी बोहरा ने इस संबंध में लिखा है-महारानी तपस्विनी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और उनके एक सरदार पेशवा नारायण राव की पुत्री थी। वह एक बाल विधवा थी। उनके बचपन का नाम सुनन्दा था, जिसमें बचपन से ही राष्ट्र प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह विधवा होने पर भी निराशापूर्ण तरीके से जीवन व्यतीत नहीं करती थी। वह हमेशा ईश्वर का पूजा-पाठ करती और शस्त्रों का अभ्यास करती थी। वह धैर्य तथा साहस की प्रतिमूर्ति थी।

सुनन्दा माँ चंडी की उपासिका थी। धीरे-धीरे उनमें शक्ति का संचार होता गया। वह घुड़सवारी करती थी। उनका शरीर सुडौल, सुंदर एवं स्वस्थ था तथा चेहरा क्रांति का प्रतीक था। उनके हृदय में देश की आज़ादी की ललक थी। किशोरी सुनन्दा अपने को शेरनी तथा गोरी सरकार को हाथी समझती थी और उन्हें समाप्त करने पर तुली हुई थी। जैसे शेर हाथियों से नहीं डरता, वैसे ही सुनन्दा भी अँग्रेज़ी सरकार से नहीं डरती थी।

नारायण राव की मृत्यु के बाद सुनन्दा ने स्वयं जागीर की देखभाल करना प्रारंभ कर दिया। उन्होने कुछ नए सिपाही भर्ती किए। सुनन्दा लोगों को अँग्रेज़ों के विरुद्ध भड़काती थी और उन्हें क्रांति की प्रेरणा देती थी। जब सरकार को सुनन्दा की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई, तो उसने सुनन्दा को एक क़िले में नज़रबंद कर दिया। सरकार का यह मानना था कि इस कार्यवाही से यह महिला शांत हो जाएगी, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।

ब्रिटिश सरकार ने सुनन्दा को नज़रबंदी से रिहा कर दिया। यहाँ से वह घर लौटने के स्थान पर नैमिषारण्य चली गई और वहाँ रह कर संत गौरीशंकर के निर्देशन में शिव तथा शक्ति की आराधना करने लगी। सरकार ने समझा कि सुनन्दा संन्यासिन बन गई है, अतः उससे अब कोई भय नहीं है।

सुनन्दा को यहाँ के लोग माता तपस्विनी के नाम से संबोधित करने लगे। रानी तपस्विनी अपने प्रवचनों के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान देती थी। सभी वर्गों के लोग उनके शिष्य थे। रानी तपस्विनी अपने प्रवचनों के माध्यम से जनता में क्रांति का संदेश फैलाती थी। जिस प्रकार बाँसुरियाँ बाबा भोजपुर में लोगों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित करते थे, उसी प्रकार रानी भी ब्रिटिश सरकार का विरोध करने एवं उसके विरुद्ध जनता को क्रांति करने की प्रेरणा देती थी। रानी ने शिष्य साधु के रूप में जनता में निम्नलिखित संदेश का प्रचार करते थे। "अंग्रेज तुम्हारा देश हड़पकर ही संतुष्ट नहीं हो रहे, वे तुम्हारा धर्म भी भ्रष्ट करना चाहते हैं। धीरे-धीरे सभी को ईसाई बना लेंगे। तुम्हें गंगा मैया की सौगंध, माता तपस्विनीकी सौगंध, जागो! उठो और अँग्रेज़ों को देश से बाहर निकाल के लिए तैयार हो जाओ।"

जब 1857 ई. में क्रांति का बिगुल बजा, तब रानी तपस्विनी ने भी इस क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके प्रभाव के कारण अनेक लोगों ने इस क्रांति में अहम् भूमिका निभाई। रानी ने स्वयं घोड़े पर चढ़कर युद्ध में भाग लिया, परंतु उनकी छोटी-सी सेना अँग्रेज़ों की विशाल तथा सुसंगठित सेना के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सकी। इसके अतिरिक्त कुछ भारतीय ग़द्दारों ने भी उनके साथ विश्वासघात कर दिया। सरकार ने रानी को पकड़ने के लिए कई बार प्रयत्न किया, परंतु गाँव वाले उनकी मदद करते थे, अतः सरकार को अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई।

रानी ने यह महसूस कर लिया था कि युद्ध के माध्यम से अँग्रेज़ों को पराजित करना आसान कार्य नहीं है। अँग्रेज़ों ने भी 1858 तक इस क्रांति का दमन कर दिया था। अतः रानी नाना साहब के साथ नेपाल चली गई, पर वहाँ जाकर भी वह शांति से नह़ीं बैठ सकी। रानी ने वहाँ अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। वहाँ से छिपे रूप में भारतीयों को क्रांति का संदेश भिजवाती और उन्हें विश्वास दिलाती थी कि घबराए नहीं एक दिन अँग्रेज़ी शासन पूर्ण रूप से नष्ट हो जाएगा।

आगे चलकर कुछ भारतीयों ने विदेशों में आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। जैसे रास बिहारी बोस ने जापान में तथा श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैंड तथा अन्य स्थानों पर भारतीयों के पक्ष में एक मज़बूत आंदोलन प्रारंभ कर दिया था। महारानी तपस्विनी ने ब्रितानियों द्वारा भारत पर किए जा रहे अत्याचारों से नेपाल की जनता को अवगत करवाया। रानी वहाँ पर राष्ट्रीय भावना का प्रसार कर रही थी। पर नेपाल के राणा ब्रितानियोंें के मित्र थे, अतः उन्हें इच्छित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।

अंततः रानी नेपाल छोड़कर कलकत्ता आ गई और वहाँ पर उन्होंने महा-भक्ति पाठशाला की स्थापना की। वहाँ पर भी रानी ने गुप्त रूप से जनता को जन क्रांति करने के लिए प्रोत्साहित किया। तिलक से उसका संपर्क हुआ। एक शिष्य खांडिकर ने ज़मीन फ़र्म क्रुप्स के सहयोग से नेपाल में टाइल बनाने का एक कारख़ाना स्थापित किया, परंतु यहाँ पर टाईल के स्थान पर बंगाली क्रांतिकारियों को देने के लिए शस्त्रों का निर्माण होता था। रानी तपस्विनी ने स्वामी विवेकानंद से भी भेंट की, पर स्वामी जी प्रत्यक्ष रूप से आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। उनका मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक संदेश का प्रचार करना था। वैसे उनके संदेश जनता में राष्ट्रीय भावना का संचार करते थे।

खांडेकर के एक मित्र ने धन के प्रलोभन में आकर ब्रितानियों को सारा भेद बता दिया था, जब रानी को इस बात की सूचना मिली, तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। इस समय खांडेकर कृपाराप के नाम से नेपाल में रह रहे थे, उन्हें बंदी बनाकर ब्रितानियों के हवाले कर दिया गया। ब्रिटिश़ सरकार ने उनको अनेक यातनाएँ दीं, परंतु उनकी जुबान पर रानी तपस्विनी का नाम तक नहीं आया।

रानी निराश हो गई। चिंता से उनका शरीर दिन प्रतिदिन कमज़ोर होता गया। धोखेबाज़ एवं देशद्रोही भारतीयों से वह घबरा गई। अंत में 1907 ईं. में भारत की यह महान विदुषीएवं देशभक्त नारी कलकत्ता में इस संसार से चल बसी। 1905 ई. में जब बंगाल विभाजन के विरूद्ध आंदोलन प्रारंभ हुआ था, तब रानी ने उसमें सक्रिय भूमिका निभाई थी। त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति रानी तपस्विनी पर हमें गर्व है।

भारत का दुर्भाग्य रहा है कि हर युग में जयचंद तथा मीर जाफर जैसे देशद्रोही एवं विश्वासघाती ग़द्दार होते रहे, जो अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु राष्ट्र का अहित करने से नहीं चूकते थे। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो विदेशों से मिलकर हमारी राष्ट्रीय एकता तथा अखंडता को नष्ट करने के प्रयास में लगे हुए हैं। देशभक्त भारतीयों को ऐसे तत्वों का डटकर विरोध करना चाहिए।


8.  ऊदा देवी

रचनाकार : ललित मोहन
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 51
पता : 'पाथेय भवन', बी-19, न्यू कॉलोनी
जयपुर- 302001 दूरभाष- 2374590
फ़ैक्स- 0141-2368590

वीरांगना ऊदा देवी ने अकेले ही ब्रितानियों से मुक़ाबला करते हुए घंटों तक उन्हें सिकंदर बाग़ में घुसने नहीं दिया। ब्रिटिश सेना सिकंदर बाग़ में घुसने का प्रयास कर रही थी, लेकिन ऊदा देवी ने अकेले ही घंटों तक उन्हें रोके रखा। तथा ब्रिटिश जनरल कूपर व जनरल लैम्सडन सहित सैकड़ौ ब्रितानियों को गोली से उड़ा दिया। ब्रितानियों ने बड़ी मुश्किल से बाग़ की दीवार तोड़ी और अंदर प्रवेश किया तो उस अकेली महिला ने उनसे जमकर लोहा लिया। अंत में यह वीरांगना संघर्ष करते हुए शहीद हो गई। आज भी ऊदा देवी की प्रतिमा लखनऊ के सिकंदर बाग़ में लगी हुई है।


9.  बालिका मैना

रचनाकार : ललित मोहन
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 51

नाना साहेब पेशवा की पुत्र मैना के बलिदान ने 1857 के महासमर में घृत आहुति का कार्य किया था। ब्रितानियों ने बिठूर के महल को तोपों से ध्वस्त करना शुरू कर दिया तो मैना ने उन्हें बहुत समझाया पर वे नहीं माने। मैना तहखाने में चली गई और रात्रि में ब्रितानियों को गया हुआ समझकर वह बाहर आई तो फ़िरंगियों ने उसे पकड़ लिया। ब्रिटिश अधिकारियों ने मैना से क्रांतिकारियों की जानकारी लेनी चाही। उन्हें बहुत से प्रलोभन दिए गए पर उस छोटी सी बालिका ने किसी भी प्रकार की जानकारी देने से मना कर दिया। तब उस नन्हीं सी जान को कई तरह से डराया-घमकाया गया, लेकिन वह पेशवा की पुत्री थी। उन्होंने ब्रितानियों को मुँहतोड़ जवाब दिया। क्रूर ब्रितानियों ने उस छोटी सी बालिका को ज़िंदा आग में जला दिया।


10.  वीरांगना झलकारी देवी

पुस्तक : 1857 के क्रांतिकारी
भाग : 1 पेज न. 204
लेखक : डॉ. एस.एल.नागोरी, डॉ. प्रणव देव
प्रकाशक : आर बी एस ए पब्लिशर्स

ब्रिटिश सेना ने झाँसी के क़िले को घेर रखा था। दोनों ओर से भयंकर युद्ध चल रहा था। महारानी लक्ष्मीबाई के आदेश से झाँसी के तोपची फ़िरंगी सेना पर निरंतर अग्निवर्षा कर रही थी। सैनिक भीशत्रुओं को अपनी बंदूक का निशाना बना रहे थे। यद्यपि अँग्रेज़ी सेना क़िले के नीचे थी, तथापि संख्या भी अधिक थी और उनके पास युद्ध सामग्री का विपुल भंडार था। अँग्रेज़ी सेना के तोपची क़िले की दीवारों को तोड़ने के लिए उन्हें अपनी तोपों का निशाना बना रहा थे। अँग्रेज़ी सेना की बंदूकें भी क़िले के रक्षकों पर भयंकर गोलीवर्षा कर रही थी। क़िले के रक्षकों की संख्या निरंतर कम होती जा रही थी।

ऐसे समय में लक्ष्मीबाई ने युद्ध परिषद् की एक आपातकालीन बैठक बुलवाई। इसमें आगामी युद्ध के विषय में चर्चा की जा रही थी। इसी समय एक प्रहरी ने महारानी लक्ष्मीबाई को बताया कि महिला फ़ौज की एक सैनिक झलकारी उनसे मिलना चाहती है।

झलकारी झाँसी राज्य के एक बहादुर कृषक सदोवा सिंह की पुत्री थी। उसका जन्म 22 नवंबर, 1830 ई. को झाँसी के समीप भोजला नामक गाँव में हुआ था। उसकी माता का नाम जमुना देवी था। जिसका अधिकांश समय प्रायः जंगल में ही काम करने में व्यतीत होता था। जंगलों में रहने के कारण ही झलकारी के पिता ने उसे घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा दिलवाई थी।

जब झलकारी बच्ची ही थी, तब उनकी माता जमुना देवी का देहांत हो गया था। उनके पिता ने उनका पोषण पुत्री की ही भाँति किया था। दूरस्थ गाँव में रहने के कारण

झलकारी स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकी। झलकारी के पिता ने डाकुओं के आतंक और उत्पात होते रहने कारण उन्हें शस्त्रं संचालन की शिक्षा दी थी, ताकि वह स्वयं अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर सके।

एक दिन झलकारी अपने पशुओं को लेकर जंगल में गई हुई थी। अचानक एक झाड़ी में छिपे एक भयानक चीते ने उस पर आक्रमण कर दिया। उस समय झलकारी के पास केवल पशुओं को हाँकने वाली एक लाठी ही थी। बस आनन-फानन में उन्होंने सँभल कर लाठी का भरपूर वार चीते के मुँह पर किया। उनकी लाठी चीते की नाक पर लगी, जिसके कारण चीता अचेत होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। इस स्थिति का लाभ उठाकर झलकारी चीते पर इस समय तक प्रहार करती रही, जब तक कि उसकी जान नहीं निकल गई।

इस घटना ने झलकारी को बहुत लोकप्रिय बना दिया। कालांतर में उनकी शादी महारानी लक्ष्मीबाई के तोपची पूरन सिंह के साथ हो गई। पूरन सिंह के कारण ही झलकारी महारानी लक्ष्मीबाई के संपर्क में आई। महारानी लक्ष्मीबाई ने उनकी योग्यता, साहस एवं बुद्धिमत्ता परख उस महिला फ़ौज में भरती करवा दिया। झलकारी ने थोड़े ही समय में फ़ौज के सभी कार्यों में विशेष दक्षता प्राप्त कर ली।

सास समय महारानी लक्ष्मीबाई ने आपातकालीन युद्ध परिषद् की एक बैठक बुलाई, उस समय झलकारी ही उनसे कुछ निवेदन करने उनकी सेवा में उपस्थित हुई। झलकारी ने सैनिक ढंग से अभिवादन करने के बाद महारानी से निवेदन किया-
"बाईसाहब! एक विनम्र निवेदन करना चाहती हूँ।"
"आज्ञा है।" महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा।
झलकारी ने निवेदन करते हुए कहा-
"बात यह है, बाईसाहब, कि हमारे सैनिकों की संख्या में निरन्तर कमी होती जा रही है। निरन्तर घिरे रहने के कारण खाद्य सामग्री भी तो समिति ही रह गई है। मेरे पति ने मुझे यह भी बताया कि हमारे तोपचियों मे कुछ के गद्दार होने की आंशका भी है। वे लोग ब्रिटिश सैनिको को निशाना न बनाकर खाली स्थानों पर लोगों का संघान करते हैं। स्थिति का लबा उठाकर और किसी स्थान पर किले की दीवार तोड़कर यदि शत्रु सेना अन्दर आ गई तो हमें किले के अन्दर ही आमने-सामने युद्ध करना पड़ेगा। हम नहीं चाहते कि उस स्थिति में आप किसी संकट मे पड़े।"

झलकारी की बात सुनने के बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने उसे उकसाते हुए कहा-
"इस संकट से निपटने के लिए तुम्हारे पास क्या योजना है?"
झलकारी ने इसका उत्तर देते हुए कहा-
"बाईसाहब! अब आपको इस किले से किसी भी प्रकार बाहर हो जाना चाहिए। दुश्मन को धोखे में डालने के लिए यह उचित होगा कि आपका वेश धारण करके पहले मैं छोटी-सी टुकड़ी लेकर किसी मोरचे से भागने का प्रयत्न करूँ। मुझकों रानी समझकर दुश्मन अपनी पूरी शक्ति से मुझे पकड़ने या मारने का प्रयत्न करेगा। इसी बीच दूसरी तरफ से आप किले से बाहर हो जाइए। शत्रु भ्रम में पड़ जाएगा कि असली महारानी कौन है! स्थिति का लाभ उठाकर आप सुरक्षित स्थान पर पहुँच सकती हैं और फिर सैन्य संघठन करके अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर सकती हैं।"

मरानी लक्ष्मी बाई को झलकारी की योजना पसन्द आ गई। वह स्वयं भी किले से बाहर निकलने की योजना बना रही थी।

योजनानुसार महारानी लक्ष्मीबाई एवं झलकारी दोनों पृथक-पृथक द्वार से किले बाहर निकलीं। झलकारी ने तामझाम अधिक पहन रखा था। शत्रु ने उन्हें ही रानी समझा और उन्हें ही घेरने का प्रयत्न किया। शत्रु सेना से घिरी झलकारी भयंकर युद्ध करने लगी। एक भेदिए ने पहचान लिया और उसने भेद खोलने का प्रयत्न किया। वह भेद खोले, इसके पूर्व ही

झलकारी ने उसे अपनी गोली का निशाना बनाया। दुर्भाग्य से वह गोली एक ब्रिटिश सैनिक को लगी और वह गिरकर मर गया। वह भेयिया बच गया। झलकारी घेर ली गई।

ब्रिटिश सेनापति रोज ने झलकारी को डपटते हुए कहा कि-

"आपने रानी बनकर हमको धोखा दिया है और महारानी लक्ष्मीबाई को यहाँ से निकालने में मदद की है। आपने हमारे एक सैनिक की भी जान ली है। मैं भी आपके प्राण लूँगा।"

झलकारी ने गर्व से उत्तर देते हुए कहा-
"मार दे गोली, मैं प्रस्तुत हूँ।"
एक अन्य ब्रिटिश अफसर ने कहा
"मुझे तो यह स्त्री पगली मालूम पड़ती है।"
जनरल रोज ने इसका तत्काल उत्तर देते हुए कहा-

यदि भारत की एक प्रतिशत नारियाँ इसी प्रकार पागल हो जाएँ तो हम अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा।"

जनरल रोज ने झलकारी को एक तम्बु में कैद कर लिया और उनके बाहर से पहरा बिठा दिया। अवसर पाकर झलकारी रात में चुपके से भाग निकली। जनरल रोज ने प्रातः होते ही किले पर भयंकर आक्रमण कर दिया। उसने देखा कि झलकारी एक तोपची के पास खड़ी होकर अपनी बन्दूक से गोलियों कि वर्षा कर रही है। अंग्रेजी तोपची का गोला झलकारी के पास वाले तोपती को लगा। वह तोपची झलकारी का पति पूरन सिंह था।

अपने पति को गिरा हुआ देखकर झलकारी ने तुरन्त तोप संचालन का मोर्चा सम्भाल लिया और वह शत्रु सेना को विचलित करने लगी। शत्रु सेना ने भी अपनी सारी शक्ति उनके ऊपर लगा दी। इस समय एक गोला झलकारी को भी लगा और "जय भवानी" कहती हुई वह भूमि पर अपने पति के शव के समीप ही गिर पड़ी। वह अपना काम कर चुकी थी। उनका बलिदान इतिहास में सदैव अमर रहेगा।


11.  तोपख़ाने की कमांडर जूही

रचनाकार : ललित मोहन
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 51

महारानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना की कमांडर जूही अंत तक महारानी के साथ रही थी। जूही ने अंतिम समय तक अदम्य साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया था। वह झाँसी के क़िले से रानी के साथ ही निकल आई थी। कालपी तथा ग्वालियर में अँग्रेज़ों के साथ युद्ध में जूही ने अँग्रेज़ी सेना पर क़हर बरसा दिया। अंतिम दिन के युद्ध में जूही ने तोपख़ाने को सँभालते हुए अँग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिए तब घबराकर ह्यूरोज ने अपने सैनिकों ने उसे घेर लेने का आदेश दिया। चारों ओर से घिर जाने के बाद भी जूही ने दुश्मनों के परखच्चे उड़ाते हुए उनकी कई तोपों को बेकार कर दिया। अंतिम समय तक जूझते हुए यह वीरांगना स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद हो गई।


12.  पराक्रमी मुन्दर

रचनाकार : ललित मोहन
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 51

मुन्दर, महारानी लक्ष्मी बाई की प्रिय सहेली तथा प्रमुख सलाहकारों में एक थी। यह महारानी की स्त्री सेना की कमांडर तथा रानी के रक्षा दल की नायिका थी। मुन्दर ने ब्रितानियों से हुए सभी युद्धों में रानी के साथ छाया की तरह रह कर भीषण युद्ध किया था। ग्वालियर के अंतिम दिन के युद्ध में मुन्दर ने रानी के साथ दोनों हाथों से तलवार चलाने का जौहर दिखाया। महारानी के कुछ पहले ही मुन्दर ने भी वीर गति प्राप्त की। मुन्दर का अंतिम संस्कार महारानी के साथ ही बाबा गंगा दास की कुटिया पर हुआ था।


13.  रानी हिंडोरिया

रचनाकार : ललित मोहन
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 51
पता : 'पाथेय भवन', बी-19, न्यू कॉलोनी
जयपुर- 302001 दूरभाष- 2374590
फ़ैक्स- 0141-2368590

हिंडोरिया (दमोह-म.प्र.) के ठाकुर किशोर सिंह की रानी स्वातंत्र्य समर में योगदान करना चाहती थीं। इसल्एि उन्होंने शांत बैठे किशोर सिंह को ब्रितानियों से जूझने के लिए प्रेरित किया। 10 जुलाई 57 को ठाकुर ने दमोह पर आक्रमण कर गोरों को वहाँ से भगा दिया। पन्द्रह दिन बाद एक बड़ी सेना ले ब्रितानियों ने पुनः दमोह पर अधिकार कर लिया तथा हिंडोरिया को घेर लिया। विकट युद्ध के बाद जब किशोर सिंह के शस्त्रास्त्र और सैनिक समाप्त हो गए तो वह ब्रितानियों का घेरा तोड़ कर निकल गए। उनकी रानी भी उनके साथ जंगलों में निकल गई।


14.  रानी तेजबाई

पुस्तक : 1857 के क्रांतिकारी
भाग : 1 पेज न. 181
लेखक : डॉ. एस.एल.नागोरी, डॉ. प्रणव देव
प्रकाशक : आर बी एस ए पब्लिशर्स
एस.एम.एस.हाइवे
जयपुर- 302002
फोन: 0141-2563826

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बहुत से लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से खुलकर भाग लिया और कुछ लोगों ने अप्रत्यक्ष रूप से छिपकर क्रांतिकारियों के उत्साह और हौंसले में वृद्धि की। रानी तेजबाई वैसी ही एक वीरांगना थी, जिन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से 1857 के संग्राम में भाग लिया था। इस वजह से सरकार द्वारा उन्हें 12 वर्ष का कारावास का दण्ड दिया गया था। रानी तेजबाई के पति का नाम गोपालराव था। उनका संपर्क जालौन राज्य से था।

ब्रितानियों की ईस्ट इंडिया कँपनी ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए कमज़ोर राज्यों को अपने अधीन करना प्रारंभ कर दिया था। जालौन का राज्य भी बहुत कमज़ोर हो गया था। अतः कंपनी की सरकार ने 1842 ई. में उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया था और वहाँ की रानी को पेन्शन दे दी गई।

जालौन राज्य के हड़पे जाने का रानी को बहुत दुःख हुआ, परंतु उनकी शक्ति बहुत सीमित थी, अतः विवश होकर उन्हें कंपनी सरकार के निर्णय को स्वीकार करना पड़ा। कुछ वर्षों बाद लार्ड डलहौजी ने झाँसी और सतारा राज्य भी हड़प लिया।

रानी चुपचाप महल में बैठी रहती। 1857 ई. में सारे देश में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया। तब तात्या टोपे ने रानी से संपर्क किया और उनके पुत्र को जालौन का राजा बना दिया। रानी को उसके लिए नाना साहब की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

ईस्ट इंडिया कंपनी का ध्यान पुनः इस रियासत की ओर गया। रानी ने कमज़ोर होने के कारण कोई विद्रोह नहीं किया, परंतु अनेक लोगों को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भगा लेने हेतु प्रेरित किया।


15.  जैतपुर की रानी

पुस्तक : 1857 के क्रांतिकारी
भाग : 1 पेज न. 182
लेखक : डॉ. एस.एल.नागोरी, डॉ. प्रणव देव
प्रकाशक : आर बी एस ए पब्लिशर्स
एस. एम. एस. हाइवे
जयपुर- 302002
फोन: 0141-2563826

ब्रितानियों की ईस्ट इंडिया कंपनी विस्तारवादी नीति का पालन कर रही थी। लार्ड क्लाइव ने भारत में ब्रितानी राज्य की स्थापना की थी जिसे लार्ड कार्नवालिस तथा लार्ड वेलेजली ने भारत के कोने-कोने में फैला दिया था। लार्ड डलहौज़ी ने हड़प नीति अपनाते हुए झाँसी, सतारा आदि राज्यों को कंपनी के साम्राज्य में मिला लिया था। उसने भारत के बचे हुए सरदारों तथा राजाओं के अधिकार को भी समाप्त कर दिया था। लार्ड एलनबरो ने जैतपुर की छोटी-सी स्वतंत्र रियासत के अस्तित्व को भी तहस-नहस कर दिया था।

जैतपुर बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत थी। प्रसिद्ध इतिहासकार सुन्दरलाल जी ने लिखा है कि कंपनी की सरकार ने 27 नवंबर, 1842 ई. में जैतपुर पर अधिकार कर उसे ब्रितानी साम्राज्य में मिला लिया था। उस समय जैतपुर पर आज़ादी के प्रेमी राजा परीक्षित शासन कर रहे थे। उनका मुख्य उद्देश्य ब्रितानी सत्ता को भारत से उखाड़ फैंकना था। पर वे कंपनी की तुलना में कमज़ोर थे। अतः कंपनी की सेना ने बहुत आसानी से उन्हें पराजित कर दिया और जैतपुर पर अधिकार कर लिया। ऐसी स्थिति में परीक्षित को जैतपुर छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने अपने एक समर्थक सामंत को जैतपुर का शासन-भार सौंप दिया। इससे जैतपुर के राजा परीक्षित को मानसिक आघात पहुँचा। वे इस दुःख को सहन नहीं कर सके और इस दुनिया से चल बसे।

जैतपुर के राजा परीक्षित की मृत्यु के बाद उनकी रानी ने प्रतिज्ञा की कि वे अपने जीवन के अंतिम समय ब्रितानियों की दासता स्वीकार नहीं करेंगी। उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अन्य राजाओं की भाँति विद्रोह किया और अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए ब्रितानियों से संघर्ष प्रारंभ कर दिया। मालवा, बानपुर तथा शाहगढ़ आदि स्थानों पर विद्रोह का झंडा फहरा दिया गया। 1857 की क्रांति के समय रानी को स्थानीय ठाकुरों का भी सहयोग प्राप्त हुआ। उन्होंने उनके सहयोग से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया और तहसीलदारों के समस्त सुरक्षित कोष पर अधिकार कर लिया।

जैतपुर की रानी ने ब्रितानियों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा, परंतु अंत में उन्हें युद्ध के मैदान से भागने के लिए विवश होना पड़ा। भारत के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि अपने ही लोग संकट के समय देश के दुश्मन की मदद करते हैं। अगर जयचंद पृथ्वीराज चौहान की मदद कर देते, तो हिंदुस्तान में मुहम्मद गौरी का शासन कभी स्थापित नहीं होता। अगर प्लासी के युद्ध (1757) में नवाब सिराजुद्दौला के मुख्य सेनापति मीर जाफर ब्रितानियों से मिलकर नवाब के साथ धोखा न करते, तो आज भारत का इतिहास भी कुछ और होता। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जहाँ तक एक ओर रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बाबू कुंवरसिंह आदि ने ब्रितानी हुकूमत को धराशायी करने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, वहाँ दूसरी और कुछ राजपूत शासकों, सिक्खों तथा गोरखों ने इस संग्राम को कुचलने में अँग्रेज़ सरकार की मदद की। यहाँ भी यही हुआ। एक महिला ब्रितानियों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही थी, तो कुछ देशद्रोही शासक तथा सामंत उनके विरुद्ध ब्रितानियों की मदद कर रहे थे। चरखेरी के राजा ब्रितानियों के मित्र थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के समर्थन में रानी की सेना से युद्ध प्रारंभ कर दिया। कुछ दिनों तक भयंकर युद्ध चला, जिसमें अनेक क्रांतिकारी इस देश की आज़ादी के लिए शहीद हो गए। ऐसी स्थिति में विवश होकर रानी टिहरी की ओर चली गईं।

जैतपुर की रानी के उत्साह एवं साहस को हम कभी नहीं भुला सकते। उन्होंने अपने त्याग और बलिदान के कारण भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।

16.  नर्तकी अजीजन

पुस्तक : 1857 के क्रांतिकारी
भाग : 1 पेज न. 174
लेखक : डॉ. एस.एल.नागोरी, डॉ. प्रणव देव
प्रकाशक : आर बी एस ए पब्लिशर्स
एस. एम. एस. हाइवे
जयपुर- 302002
फोन: 0141-2563826

जिस किसी व्यक्ति या महिला में देशप्रेम एवं देश के लिए मर मिटने की तमन्ना होती है, वह वरण्य होता है। जिसमें ऐसी भावना नहीं होती, उसे हम देशद्रोही की संज्ञा देते हैं, और उनके दर्शन करना भी पाप की श्रेणी में आता है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, वह अपने सद्कार्य से इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बना सकता है। ऐसा कहा जाता है कि संकट के समय दिव्य आत्माओं का जन्म होता है, जो जन साधारण को सत्कार्यों की प्रेरणा देती है।

प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता का बिगुल बजाने वाले प्रथम बलिदानी मंगल पाण्डेय एक साधारण सिपाही थे। इसके अतिरिक्त नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बाबू कुंवरसिंह, आदि 1857 की क्रांति के अन्य नेता थे, जिन्होंने इस क्रांति का नेतृत्व किया था। इनके आह्वान पर हजारों लोगों ने क्रांति में अपने प्राणों का उत्सर्ग तक कर दिया था। उन्हीं में से नर्तकी अजीजन बेगम भी एक थी, जिसका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है।

अजीजन बेग़म एक प्रसिद्ध नर्तकी थी। उनके सुरीले संगीत एवं नृत्य से हज़ारों युवक आकर्षित होते थे। धन संपत्ति की उनके पास कोई कमी नहीं थी, परंतु सच्चा कलाकार कभी भी सिर्फ़ रंगरेलियों में ही अपना समय व्यतीत नहीं करता।

जैसा कि हम जानते हैं कि भिखारी ठाकुर न केवल एक प्रसिद्ध लोक नर्तक थे, अपितु भोजपुरी भाषा के विख्यात कवि तथा नाटककार भी थे। उन्होंने अपने बेटी वियोग, विदेशिया, विधवा विलाप, भाई विरोध आदि नाटकों के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। इस प्रकार भिखारी समाज सुधारक, नर्तक तथा भगवान भक्त थे। इसी प्रकार मेरा यह मानना था कि अजीजन बेग़म केवल एक साधारण नर्तकी नहीं थी, बल्कि उनके हृदय में देशभक्ति की भावनाएँ हिलोरें भर रही थीं।

1857 की क्रांति कानपुर तक फैल चुकी थी। अजीजन बेग़म यह जानती थी कि शक्तिशाली ब्रितानियों को पराजित करना कोई आसान काम नहीं है। फिर भी उन्होंने देश की आज़ादी के लिए नर्तकी के जीवन को त्याग दिया और क्रांतिकारियों की सहायता करने का निश्चय किया।

श्री वीर विनायक दामोदर सावरकर ने अजीजन के सम्बन्ध में लिखा है "अजीजन एक नर्तकी थी, परन्तु सिपाहियों को उससे बेहद स्नेह था। अजीजन का प्यार साधरण बाजार में धन के लिए नहीं बिकता था। उनका प्यार पुरस्कार स्वरूप उस व्यक्ति को दिया जाता था, जो देश से प्रेम करता था, अजीजन के सुन्दर मुख की मुस्कराहट भी चितवन युद्धरत सिपाहियों को प्रेरणा से भर देती थी। उनके मुख पर भृकुटी का तनाव युद्ध से भागकर आए हुए कायर सिपाहियों को पुनः रणक्षेत्र की ओर भेज देता था।"

कानपुर के क्रांतिकारी भी अपनी गुप्त बैठकें आयोजित करते थे। वहाँ नाना साहब, बाला साहब (नाना साहब के भाई) तथा तात्या टोपे क्रांति का नेतृत्व कर रहे थें। 1 जून, 1857 ई. को क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें शमसुद्दीन खाँ, नाना साहब, बाला साहब, सूबेदार टीका सिंह, अजीमुल्ला खाँ के अतिरिक्त अजीजन बेग़म ने भी भाग लिया था। गंगाजली की साक्षी ले उन सभी ने क़सम खाई कि हम भारत में ब्रिटिश सत्ता को समाप्त कर देंगे।

शमसुद्दीन खाँ ने 2 जून को अजीजन के घर जाकर उनसे भेंट की। उन्होंने अजीजन को बताया कि भारत से कंपनी का शासन शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। यह सुनकर वीरांगना अजीजन का हृदय कमल की भाँति खिल उठा।

कानपुर के प्रथम युद्ध में नाना साहब को विजय प्राप्त हुई। जून, 1857 ई. में उन्होंने बिठूर का शासन अपने हाथ में ले लिया। यह सही कि कानपुर पर नाना साहब का अधिकार अधिक दिनों तक नहीं रह सका और ब्रितानियों ने कानपुर पर अधिकार कर उन्हें वहाँ से खदेड़ दिया। इतिहासकारों का मानना है कि इसी अजीजन ने भी स्त्रियों की टोली बनाली। उस टोली में सम्मिलित स्त्रियाँ पुरूष वेश में तलवार लिए घोड़ों पर चढ़कर नवयुवकों को क्रांति में भाग लेने की प्रेरणा देती थी। वे घायल सिपाहियों की मरहम पट्टी करतीं, उनकी सेवा करतीं और उनमें मिठाई, फल एवं खाद्य सामग्री वितरित करती थीं।

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी पराजित हुए। नाना साहब और तात्या टोपे को कानपुर छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ा। ब्रितानियों ने कानपुर पर अधिकार करने के बाद0 अजीजन को पकड़ लिया। उनके अनुपम सौंदर्य पर ब्रिटिश अधिकारी मुग्ध हो गया। जनरल हैवलॉक ने अजीजन से कहा कि यदि तुम अपने कार्यों के लिए क्षमा माँग लो, तो तुम्हें मुक्त कर दिया जाएगा। अजीजन ने कहा कि वह ब्रितानियों से कभी भी माफ़ी नहीं माँग सकती, जिसके हृदय में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई हो, देश प्रेम हिलोरे मार रहा हो, क्या वह ब्रितानियों के सामने अपने घुटने टेक सकता है।

अजीजन इस बात के परिणाम को भी अच्छी तरह समझती थी, परंतु वह वीरांगना थी। उन्होंने सोचा कि हज़ारों लोग जन्म लेते हैं और मरते हैं, परंतु जो समाज तथा देश के लिए मरता है, वह इतिहास में अमर हो जाता है। देखते ही देखते ब्रिटिश सैनिकों ने अजीजन को अपनी गोलियों का निशाना बना दिया, जिसके कारण वह इस संसार से चल बसी, परंतु इतिहास में अपना नाम अमर कर गई। हम उनके त्याग तथा बलिदान से हमेशा देश भक्ति की शिक्षा लेते रहेंगे।

17.  ईश्वरी पाण्डेय

पुस्तक : 1857 के क्रांतिकारी
भाग : 2 पेज न. 64
लेखक : डॉ. एस.एल.नागोरी, डॉ. प्रणव देव
प्रकाशक : आर बी एस ए पब्लिशर्स
एस. एम. एस. हाइवे
जयपुर- 302002
फ़ोन: 0141-2563826

1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं में ईश्वरी पाण्डेय भी एक थे। उनमें भी मंगल पाण्डे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे एवं बाबू कुंवरसिंह जैसी देश को आज़ाद कराने की ललक थी। यह अलग बात है कि वह उनके समान इतिहास में चर्चित नहीं हुए। इतिहास कभी-कभी योग्य व्यक्तियों की भी उपेक्षा कर देता है। आज भी हज़ारों शहीद ऐसे हैं, जिनके बार में हमें कोई जानकारी नहीं है और न ही हम उनके बार में जानने का कोई प्रयास करते हैं। रामकृष्ण मिशन में हम केवल स्वामी विवेकानंद के बारे में ही जानते हैं। उन्हीं के अन्य गुरु भाइयों के बारे में हमें कोई भी जानकारी नहीं और न ही उन्हें जानने का कोई प्रयास ही करते है।

ईश्वरी पाण्डेय एक कर्त्तव्यनिष्ठ एवं उच्च कोटि के कर्मनिष्ठ संगठनकर्ता थे। वे मंगल पाण्डे के विश्वसनीय मित्र तथा सहयोगी थे। मंगल पाण्डे की भाँति वे भी हँसते-हँसते फाँसी के फँदे पर झूल गए।

समाज में नेता तो एक या दो ही होते हैं। अधिकांश लोग मूक बनकर देखते रहे हैं, जबकि कुछ महान् नेताओं से प्रभावित होते हैं।

मंगल पाण्डे की छावनी में चरबी के कारतूस को लेकर सिपाहियों में बहुत खलबली मची, परंतु सामने कोई नहीं आया। शेर किसी से नहीं डरता। अग्नि स्वयं प्रज्जवलित होती है। तूफान स्वयं प्रवाहित होते हैं और वृक्षों को तोड़ने के बाद ही शांत होते हैं। कहने का मतलब यह है कि महान व्यक्तित्व किसी का इंतज़ार नहीं करते हैं।

जब मंगल पाण्डे ने क्रांति को प्रारंभ कर दिया, तब ईश्वरी पाण्डेय ने मन, वचन एवं कर्म से उनका साथ दिया। ईश्वरी पाण्डेय ने अँग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्ष में दिल खोलकर मंगल पाण्डे का साथ दिया, जबकि अन्य सिपाही मूक दर्शक बनकर तमाशा देख रहे थे। ईश्वरी पाण्डेय न केवल अँग्रेज़ों के चाटुकार सिपाहियों को, अपितु कुछ अँग्रेज़ अधिकारियों को भी मंगल पाण्डे के साथ हो रहे संघर्ष भूमि तक नहीं पहुँचने दिया। उन्होंने अपने शौर्य, पराक्रम एवं शूरवीरता से उन्हें रोके रखा।

हमें ठीक से यह जानकारी नहीं होती कि ईश्वरी पाण्डेय का जन्म कब और कहाँ हुआ था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि वे बालियाँ या गोरखपुर जिला के रहे होंगे। उनके कार्यों से यह स्पष्ट रूप से पता जलता है कि वे एक जोशीले नौजवान थे। उन्होंने चर्बीयुक्त कारतूस का विरोध किया। उनका मंगल पाण्डे के प्रति अत्यधिक स्नेह था। वे 34वीं रेजिमेंट नेटिव इन्फेन्ट्री की एक (1) नंबर की कंपनी जमादार थे। वे चाहते तो अँग्रेज़ों की चापलूसी करके किसी उच्च पद को प्राप्त कर सकते थे, परंतु उनके हृदय में तो देशभक्ति की ज्वाला धधक रही थी।

जब मंगल पाण्डे ने दो अँग्रेज़ अफ़सरों, रेजीमेण्ट नेटिव इन्फेन्ट्री के सार्जन्ट जेम्स थार्नटन ह्यूसन एवं चेफ़्टिनेंट बम्पडे हेनरी बाग़ को अपनी तलवार से घायल कर दिया, तब ईश्वरी पाण्डेय ने उन दोनों अँग्रेज़ों की जान बचाने के प्रयास को असफल कर दिया। इसके अतिरिक्त अँग्रेज़ों के पिट्ठु भारतीय सिपाहियों एवं दो अन्य अँग्रेज़ अधिकारियों को घटनास्थल पर नहीं पहुँचने दिया।

इसी समय कर्नल एस. जी. व्हीलर एवं कैप्टन टूरी दोनों घटनास्थल पर आए और उन्होंने मंगल पाण्डे को पकड़ने का आदेश दिया, जिसका पालन ईश्वरी पाण्डेय ने नहीं किया। इस अपराध के लिए ईश्वरी पाण्डेय पर सैनिक अदालत में मुकदमा चलाया गया। व्हीलर ने अपनी गवाही में कहा कि मैंने ईश्वरी पाण्डे को आदेश दिया था कि वह अपने सहयोगियों की सहायता से मंगल पाण्डे को पकड़ ले, परंतु उसने मेरे आदेश का पालन नहीं किया।

ईश्वरी पाण्डेय की अनुशासनहीनतआ की ख़बर व्हीलर ने मेजर जनरल को दे दी। तत्पश्चात् सैनिक अदालत में उसके विरुद्ध मुकदमेे की सुनवाई हुई। ईश्वरी पाण्डेय पर यह आरोप था कि उन्हों ने अपने पदाधिकारी व्हीलर के आदेश का उल्लंघन करके मंगल पाण्डे की सहायता की है। ईश्वरी पाण्डेय ने इसे ग़लत बताया, परंतु सरकार ने उनके बया को असत्य मानकर फाँसी की सजा सुना दी। मंगल पाण्डे को 8 अप्रेल, 1857 को फाँसी दी गई थी। ईश्वरी पाण्डेय को 22 अप्रेल, 1857 को फाँसी के तख़्ते पर लटका दिया गया। देश के लिए शहीद हुए ईश्वरी पाण्डेय के त्याग एवं बलिदान को कभी नहीं भुलाया नहीं जा सकता।

 

क्रांति १८५७

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