क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

कर्नाटक

सन्दर्भ

Book  : South India In 1857 War Of Independence
Author : V.D. Divekar
Publisher : Lokmany Tilak Smarak Trust
1651 Sadashiv Path
Pune 411030

पुस्तक : 1857 के स्वाधीनता संग्राम में दक्षिण भारत का  योगदान
लेखक : डा.वा.द.दिवेकर
अनुवादक : डॉ. कैलाश शंकर कुलश्रेष्ठ
भाषा : हिन्दी
प्रकाशक : भारतीय इतिहास संकलन समिति,
ब्रज प्रांत, 173, माधव भवन,वीर सावरकर नगर, आगरा।
उत्तर प्रदेश
पिन 282010a

कर्नाटक के बीजापुर जिले का एक गंाव हालगाली था। इस गांव में अधिकतर शिकारी लोग ही रहते थे। यह लोग मुख्यतया जंगली जानवरों व पक्षियों के शिकार व जंगलों में पैदा होने वाली वस्तुओं को बेचकर अपना जीवन चलाते थे। ये शिकारी अपने साथ बर्तन व कुछ उपकरण रखते थे जो उनकी आजीविका के लिये हर समय उपयोगी होते थे। एक बार जब बारिस हो रही थी व भोजन की कमी थी तो शिकारियों के एक दल ने ड़कैती की।

ब्रिटिश सरकार को इस घटना के बारे में सुचना दी ग़ई । अभी 1857 की क्रांति समाप्त ही हुई थी। सरकार ने राज्य के मुख्य अधिकारी को तुरंत ही शिकारियों के `हथियार औजार आदि अपने अधिकार में ले लेने का आदेश दिया। इससे सभी शिकारी चिंतित हुए क्योंकि शिकारियों के ये सभी हथियार व औजार जैसे कुल्हाड़ी, चाकु, जालिया आदि उनकी आजीविका के लिये बहुत उपयोगी थे,  जिनकी उन्हें हर समय जरू रत होती थी। लेकिन शिकारियों के पास पिस्तौल बुलेट आदि हथियार नहीं थे इस कारण सरकार ने इन ज्ंागली लोगों को निर्दोष करार दे दिया लेकिन 1857 में एक कानून पास हुवा कि ब्रिटिश सरकार के अनुमोदन व लाईसेंस के बिना कोई भी अपने पास बंदूक, पिस्तौल व दुसरे हथियार नहीं रख सकते ।

ये कानून उन शिकारियो के लिये लागू किये गये थे लेकिन इन लोगों ने इस कानून का विरोध किया व अपने हथियारों को नहीं छोड़ा व उन्होंने ब्रिटिश सरकार से लड़ाई की । 29 नवम्बर 1857 को हालगाली पर आक्रमण किया गया व 290 शिकारियों को कैद किया ग़या व उनको निर्दयता से मार डाला गया । 13 शिकारी नेताओं को जनता के सामने फ़ंासी पर लटका दिया ग़या। कर्नाटक के लोकगीतों व कहानियों में इन शिकारियों के साहस व आत्मबलिदान की गाथा आज भी अमर है। माना कि हथियार रखना गुनाह है लेकिन ये बात अपनी जरू रतों पर निर्भर है शिकारियों के हथियार रखने की जरू रत अलग है क्योंकि ये उनकी रोजी-रोटी के लिये जरू री होते थे।

भारत में जिनका गुज़ारा औजारों से होता है। उनकी पूजा होती है। भारतीय ज़ाति व्यवस्था के अनुसार भी शिकारियों को अपनी सुरक्षा के लिये अपने पास औजार व कुछ हथियार रखने की अनुमति है इस बात को नजर अंदाज करके उन शिकारियों पर अत्याचार हुआ जिसका कर्नाटक में 1857 में  विरोध हुआ।

1. बेलगाँव में 29वीं स्थानीय पैदल सेना ने विद्रोह का झंडा ख ड ा किया ।

जून, 1857
1857 : जून 20 का स्थानीय पैदल पलटन बेलगाँव का, 74वीं बंगाल पलटन के नाम एकत्रित कार्यवाही के हितार्थ पत्र, जो मुंबई में पकडा गया।
1857 : जुलाई, झनुलबद्दीन का मैसुर करनूल तथा मद्रास के लिये विद्रोही पत्र के साथ पदार्पण; जिनमें कुछ ब्रिटिश सरकार द्वारा हैदराबाद में पकडे जाते हैं।
1857 : 29वीं स्थानीय पैदल पलटन का अगस्त का विद्रोह दबा दिया गया।

बेलगाँव जिले में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं की एक लम्बी परम्परा उस समय से चली आ रही थी जब से कि क्षेत्र ने अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता खो दी थी। 12 अप्रैल, 1818 बेलगाँव किले के पतन से कृष्ण नदी के दक्षिण क्षेत्र की जीत पूर्ण हो गई थी। प्रथम महान विप्लव 1824 ई. में हुआ जबकि किट्टूर के लोग, देसाई शासकीय परिवार की एक बहादुर महिला चेन्नम्मा के अन्तर्गत विपुल विद्रोह खडा हुआ। पाँच वर्ष के पश्चात् किट्टूर का द्वितीय विद्रोह संगोली गांव के रायण्णा के नेतृत्व में हुआ। 28 दिसम्बर, 1830 में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी दे दी गई थी। सन् 1844-45 में बेलगाँव और धारवाड के किलों को घेरने की तथा उत्तरी कर्नाटक को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वतंत्र कराने की एक महान् योजना बनी।

जून 1857 के मध्य में सशस्त्र रोहिलों के हाथ निजाम के देश से करनूल तथा कडप्पा जिलों के पार जाने लगे और कुछ समय तक जंगलों म्क में गहरी योजना के एक भाग के रूप में घूमते रहे।

ब्रिटिश सरकार ने बेलगाँव में 28 जुलाई, 1857 को एक गुप्तचर, विभिन्न शाखाओं में विभाजित षड़यंत्र को खोजने के लिये भेजा जो मैसूर, करनूल और मद्रास तक फैले थे। उसने बताया कि एक गुप्तचर झनुलबदीन मद्रास के लिये प्रस्थान कर चुके है और उनकी गिरफ़्तारी की प्रार्थना की गई तथा निगरानी के चौकन्ने तरीके अपनाने को कहा गया। बाद में प्रतिनिधि झनुलबदीन पकडे गए। एक पत्र अग्रसरित किया जो कि अति क्रांतिकारी भाव का था। इसमें बताया गया था कि तैयारियाँ शीघ्र ही पूर्ण कर लीं जावेंगी तथा बेलगाँव के चारों ओर वहाँ के प्रभावशाली व्यक्ति और स्थानीय प्रतिनिधि पर प्रभाव डाला जा चुका है और ब्रिटिश सरकार के लोग शीघ्र जड और शाखाओं से उखाड फेंकेगे अथवा समूल नष्ट कर दिये जावेंगे। इन योजनाओं की सूचनाएँ तथा क्रांतिकारी तैयारियाँ गोवा के पुर्तगाली गर्वनर तक पहुँच चुकी हैं। 25 जुलाई, 1857 के एक पत्र में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को महान मंच पर चेतावनी दी। इस प्रकार दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में साधारण योजना के अंतर्गत युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। बेलगाँव ऐसे संगठनो और तैयारियों का केंद्र सिद्ध हुआ।

सन् 1857 में ब्रिटिश फौज की 29वीं स्थानीय पैदल सेना, जो वर्तमान में ही निर्मित हुई थी बेलगाँव में स्थापित कर दी गई। शहर के व्यक्तियों तथा पलटन में देश भक्ति की भावनाएँ उबल रही थी। विभिन्न क्रांतिकारी केंद्रों जैसे पुणे, कोल्हापुर, जमखिन्डी तथा शोरापुर से बेलगाँव के गुप्तचर पहुँच रहे थे। विद्रोह के संगठन से संबंधित स्थानीय पैदल पलटन जो कोल्हापुर में स्थित थी तथा शहर की जनता के मध्य तथा बेलगाँव में निरंतर पत्र व्यवहार चल रहा था। पकडे गये पत्र कि बेलगाँव की गतिविधियाँ प्रसार तथा भीषणता के स्वरूप की थीं। पुनः 29वी स्थानीय पैदल सेना बेलगाँव से भाइयों 74वीं बंगाल स्थानीय पैदल सैन्य दल को लिखा एक पत्र बम्बई में पकडा गया और ब्रिटिश सेना के दक्षिणी विभाग के प्रमुख जनरल ले ईस्टर से 13 जून 1857 को भेजा गया जिनका बेलगाँव में निवास था। पत्र स्पष्ट कहता था, "हम सब एक हैं। हम आपकी सूचना पर दौडते हुये आ जायेगें।

इस भयंकर विद्रोह को रोकने के लिये जनरल लेस्टर ने कुछ गम्भीर कदम उठाये। उसकी आज्ञा से साफा की मस्जिद नमाज आदि के लिये बन्द कर दी गई क्योंकि यह ब्रिटिश शस्त्रीकरण के समीप था। जैसा, उसने पाया बेलगाँव ब्रिटिश अधिकारियों के लिये उस क्षेत्र में खतरें का स्वरूप प्रदर्शित कर रहा था। यूरोपीय अतिरिक्त फौजी सहायता, 10 अगस्त 1857 को जो बम्बई से भेजी गई थी, बेलगाँव पहुँच गई। इससे लेस्टर असंख्य नागरिक तथा फौजी नेताओं को बेलगाँव में पकड सका और उन पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध लागू करने का अभियोग चलाया। बेलगाँव का विद्रोह कठोर दमननीति के कारण दबा दिया, जिसका प्रतिफल यह निकला कि राजभक्तों पर अभियोग चलाये गये उन्हें फांसी दी गई उन्हें जीवनभर के लिये समुद्र पार सजा देकर निष्कासित कर दिया गया।

बाद में 12 जून, 1858 ई. को बेलगाँव ने नरगुद के प्रमुख बाबा साहब की भीषण फांसी भी देखी।

2. प्रमुख नेता

मुहम्मद हुसैन मुंशी
मुहम्मद हुसैन मुंशी बेलगाँव विद्रोह के एक नेता थे। वह ब्रिटिश अधिकारियों के घनिष्ठ थे, क्योंकि उन्होंने उन्हें पढाया था। वह एक मुसलमान थे और गुप्तचर नुकल हुदा के शिष्य थे जो पश्चिमी भारत शाखा के व हावी वर्ग के प्रमुख थे तथा पुणे में रहते थे। स्थानीय पैदल पलटन को मुंशी द्वारा भेजे गये पत्र जो कोल्हापुर तथा बेलगाँव तथा अन्य फौजी ठिकानों पर ब्रिटिश सरकार द्वारा पकडे गये थे ये स्पष्टतः बतलाते थे कि संगठन कितना फैला हुआ था और कितनी विशाल संख्या में दक्षिण के प्रत्येक फौजी ठिकाने पर सिपाही स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने को तैयार थे। मुंशी से प्राप्त पत्र उनके विपरीत प्रमाण बन गये। बेलगाँव फौजी अदालत में उन पर अभियोग चला और जनसाधारण के समक्ष 14 अगस्त, 1857 को उन्हें बंदूक से उडा दिया गया।
तत्पश्चात् जी. वी. सेटन केर, बेलगाँव के मजिस्ट्रेट तथा राजनीतिक प्रतिनिधि, दक्षिण मराठा क्षेत्र एच. एल. एन्डरसन सेक्रेटरी मुंबई को पत्र (सं. 133, 29 अप्रैल, 1858) में बेलगाँव की जनता को शस्त्रविहीन करने के विषय में लिखा तथा निरूपित किया मैने, बेलगाँव के शहर में अपनी कार्यवाही प्रारम्भ की, जहाँ मुझे मुहम्मद हुसैन को फाँसी पर चढाए जाने का लाभ मिला। यह पर्याप्त रूप से पढे लिखे एक प्रभावशाली व्यक्ति के पुत्र थे, जिन्हें बंदूक से 14 अगस्त 1857 अपने धर्मालम्बियों के सम्मुख तथा वे सिपाही जिनके माध्यम से उत्तर भारत के दृश्य को स्थिरतापूर्वक पुनः प्रदर्शित करने की धारणा बनाई गई थी उन मुहम्मद हुसैन को मोहर्रम की महान रात्रि 14वी को जो 30 अगस्त थी उडाया गया जिन दो तिथियों के मध्य शकूर और बेलगाँव के दो शहर बिना अधिक कष्ट के शस्त्र-विहिन कर दिये गये।" (मुंवई-राजनीतिक विभाग गृ. 38 दिनाँक 1858 पृ.सं. 43-53) इस परिस्थिति पर आगे विवरण व्यर्थ है।

3. अन्य विशेष व्यक्ति

महीपाल सिंह
पुत्र जवाहर सिंह, आयु 35 वर्ष परदेशी क्षत्री, पूर्व मे बंगाल प्रदेश बान्दा मे वजोरा के निवासी, शोरापुर के प्रमुख के गुप्तचर, बेलगाँव विद्रोह हितार्थ, 14 अगस्त, 1857 को फांसी पर चढा दिया गया।
छोटू सिंग
पुत्र दारा सिंग, जमखिन्डी के प्रमुख के गुप्तचर बेलगाँव में विद्रोह के हितार्थ। अक्टूबर, 1858 में फांसी पर चढा दिया गया।
लक्ष्मण प्रसाद
पुत्र रुद्रमावी, जमखिन्डी के प्रमुख के गुप्तचर बेलगाँव में विद्रोह का संगठन करन ेके लिये नियुक्त।
देवी दीन
बेलगाँव में स्थानीय पैदल पलटन के हवलदार मेजर। जीवनभर के लिये निर्वसन।
झनुलबदीन
मद्रास, करनूल और मैसूर के स्थानों पर युद्धकी सूचनाएँ बेलगाँव से लेजाता था। हैदराबाद के एक ब्रिटिश प्रतिनिधि द्वारा उनका एक पत्र पकडा गया था।
जमखिन्डी के प्रमुख
शोरापुर के प्रमुख
नुकल हुदा, वहावी सम्प्रदाय के प्रमुख, पश्ि च् ामी भारत पुणे ।

4. शहीद मुहम्मद हुसैन मुंशी
(बेलगाँव में जिन्हेंे तोप से उडा दिया गया। 14 अगस्त 1887)
महीपाल सिंह
(बेलगाँव में 14 अगस्त, 1857 को तोप से उडा दिया गया।)

5. कैदी
चार व्यक्ति देवी दीन सहित जिन्हें 29वीं स्थानीय पैदल पलटन के हवलदार ने भेजा था, समुद्र पार जीवनभर के लिये निर्वसन।

6. स्त्रोत
मुंबई पुरा अभिलेखागार राजनीति विभाग ग्रन्थ सं. 1857 प. 417-433
ग्र. 38, 1858 पृ. सं. 43-53
एस. एम. एच. एफ. एम. आई. ग्र. 1 पृ. 266-267
एच. एफ. एम. के. ग्र. 1. पृ. 402-404, 511-520
एफ. एस. ए. पी. (ए) ग्र. 1. पृ. 146
मुंबई जिला गजेटियर ग्र. 21 बेलगांव
जेकव-पश्चिमी भारत पृ. 154
स्टोक्स-एक ऐतिहासिक मूल्यांकन पृ. 94
वेस्ट-ए. मेमोयर पृ. 118-120

मैसूर में असंतुष्टता एवं क्रांतिकारी परिस्थितियाँ

फरवरी 1857
   1857 : ब्रिटिश शासन को मैसूर से उखाड़ फेंकने की असफल योजनाएँ।
   1857 : जुलाई, नाना साहब पेशवा के गुप्तचरों की विभिन्न स्थानों पर भेंट। मैसूर सहित ब्रिटिश
सरकार के विरोध में मनुष्यों को युद्ध-कार्य में प्रवृत्त करने के हितार्थ।
   1858 : मैसूर राज्य में ब्रिटिश विरोधी प्रदर्शन।

1799 ई. में ब्रिटिश सरकार के हाथों टीपू सुल्तान की हार के बाद भी, स्वतंत्रता की तीव्र उत्कंठा की चिंगारी मैसूर राज्य के क्षेत्रों में अभी भी बुझी नहीं थी; जो कि ब्रिटिश शासन में जा पहुँची थी। ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक काल से ही यदा-कदा विभिन्न स्थानों पर चिंगारी निरंतर फूटती ही रहती थी। विदनूर में 1800 ई. में एक विप्लव हुआ। चितूर पालेगर का विप्लव (1804-05 ई.) इस प्रकार की एक बड़ी घटना माना जा सकता है। वैलूर क़िले में नियुक्त ब्रिटिश फ़ौज की एक पलटन ने मैसूर में पुन: शक्ति प्राप्त करने के हितार्थ एक विद्रोह किया जो 10 जुलाई, 1806 से प्रारंभ हुआ वह जगत प्रसिद्ध है। बंगलौर छावनी जिसकी नींव ब्रिटिश साम्राज्य ने रखी थी, 1809 ई में इसमें, ब्रिटिश दलों को स्थानांतरित कर दिया गया। मुसलमान टीपू के यशस्वी दिनों को भूले नहीं थे। हाकिम एवं अनेकों व्यक्तियों जिन्होंने उनके अंतर्गत कार्य किया था, वे अब भी जीवित थे । 1832 ई. में सिपाही ओसमान वेग को, ब्रिटिश सरकार ने अपमानित करने के लिए, एक मरा हुआ सुअर, बंगलौर ईदगाह क्षेत्र में फेंक दिया। 1831 ई. में तरिकेरे और चन्नारायपट्टणा में ब्रिटिश विरोधी प्रतिरोध हुए। 1836 ई. में, अमरसुलैया में एक प्रतिरोध हुआ और उसके पश्चात् 1837 में मंगलूर में एक विद्रोह उठ खड़ा हुआ।

कुर्ग राजाओं के अंतर्गत 'कर' निर्धारण चुकती पदार्थों में किया गया। मंगलूर के ज़िलाधीश ने नक़द अदायगी की माँग की। इसी से कुर्ग का प्रसिद्ध राजद्रोह फूट पड़ा जो तदंतर ब्रिटिश शासन के द्वारा दबा दिया गया, तत्पश्चात् अग्रगामी व्यक्तियों ने विशेष प्रयासों से कुर्ग वासियों में स्नेह भाव पैदा किया।
1837 व 1838 ई. में जब कनारा में ब्रिटिश शासन के विपरीत विद्रोह चल रहा था, उस समय मैसूर के कुछ व्यक्तियों का उन विद्रोहियों से पत्र-व्यवहार था।

1855 ई. में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की योजना का पुनर्निमाण हुआ, वह किसी प्रकार असफल हो गई। (भारत राज नैतिक एवं विदेशी परामर्श, 17 अगस्त सन् 1855, न. 105; के. एन. वी. शास्त्री सर मार्क कवन के अंतर्गत मैसूर प्रशासन 1834 ई. से 1861 पृ. 68) 1837 ई. तथा उससे पूर्व मैसूर में ब्रिटिश शासन के प्रति विशेष रूप से शिक्षा संबंधी एवं धार्मिक नीतियों के प्रति अत्यधिक अविश्वास व्याप्त था और क्रांतिकारी इस स्थिति का लाभ उठाने और स्वतंत्रता संग्राम को आगे फैलाने में किसी भी प्रकार से चूके नहीं।  बंगलौर में 1855 ई. में ब्रिटिश सरकार नॉर्मल स्कूल खोला। इसे लोगों ने शंका की दृष्टि से देखा। ब्रिटिश आयुक्त ने बाद में मैसूर प्रशासन रपट (1858-59 ई.) में लिखा, "इस दिशा में हमारे प्रयत्नों ने लोगों से पूर्ण लाभ उठाया और जन-असंतोष में वृद्धि की। उन्होंने हमारे विद्यालयों को देश के धर्म के लिए ख़तरे का स्त्रोत बताया।" (वास्तविकता की प्रबलता) कवन की 'शिक्षा पर रपट' में इस बिन्दु की पुनरुक्ति हुई। यह योजना मैसूर में शिक्षा के विस्तार एवं सुधार के लिये प्रयोजनित थी, जिसे कि सर्वोच्च की फरवरी, 1857 में स्वीकृति प्राप्त हो गई थी। ये केवल आंशिक रूप से कार्य रूप में परिणित हुई, उन कारणों से जो पूर्व में ही उस वार्षिक क्षेत्र की प्रशासनिक रपट में व्यक्त किये जा चुके हैं अर्थात् अन्तिम ढाई वर्ष तक जनता में नवीन मानक प्रस्तुत करना स्वभाविक रूप से शंकायुक्त था तथा कुछ सीमा तक (अंग्रेजी) शिक्षा की उन्नति की पहचान के लिये स्थिर था जिसमें जाति का हनन होना था।" (शिक्षा पर रपट-ब्रिटिश आयुक्त के बंगलौर कार्यकाल में---लेखक एम. कवन, दिनाँक 12 जनवरी, 1860)1857-58 ई. के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के मध्य ब्रिटिश-विरोधी विप्लव नियोजित थे तथा इनमें गुप्तचरों का भी प्रयोग किया गया तथा दक्षिण भारत के मैसूर क्षेत्र के अंदर एवं बाहर देशभक्त सैन्य दलों में संचार व्यवस्था का आदान-प्रदान हुआ। कृष्णा शास्त्री मल्हार, अयना भाउ वीरप्पा तथा अन्य इसमें विद्यमान थे जिन्होंने इस प्रकार के विप्लव में भाग लिया। मेजर जनरल सर ल ग्रान्ड जेकव, जिन्हें उस समय 1857 में दक्षिण के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्वतन्त्रता संग्राम को दबाने का कार्य दिया गया था ; उन्होंने अपनी रपट में यह निरूपित किया "चेमा साहिब (कोल्हापुर निवासी) भी नाना साहेब के यहां से आये गुप्तचरों का स्वागत करते है, जिनमें से एक ने संपूर्ण दक्षिण भारत का भ्रमण किया था, अन्त में मैसूर आकर उन्होंने उनकों सूचना दी थी कि उन्हेंे चालीस विभिन्न पलटनों का सहयोग प्राप्त हो गया है।" (वेस्टर्न इंडिया पृ.204) कर्नल डेविडसन जो कि हैदराबाद में 1857 से रेजिडेन्ट था ने (अपनी प्रशासकीय रपट 1858-59) में लिखा, "अतयंत राजद्रोहात्मक एवं विप्लवकारी चरित्र के पत्र औरंगाबाद, भोपाल अहमदाबाद, बेलगाँव तथा मैसूर से पकडे गये।" (दि निजाम ले. एच. जी. विग्स, गृ.2 पृ.83-86) इस प्रकार डेविडसन् ने झनुलुबदीन का एक पत्र जो अत्यधिक राजद्रोहात्मक अभिप्राय से भरा था, पकडा और मद्रास सरकार को प्रस्तुत किया। झनुलबदीन जुलाई, 1857 में विद्रोह की योजना के साथ बेलगाँम छोड चुके थे और मैसूर करनूल तथा मद्रास जैसे स्थानों पर मिले।

गर्वनर जनरल के गश्ती पत्र दिनाँक 26 फरवरी, सन् 1858 के प्रत्युचर में 'गदर के दिनों' में दलों के चरित्र पर रपट की आवश्यकता बताई। सर मार्क कवल ने विवरण प्रस्तुत किया कि, "ब्राह्राण जाति (अत्यधिक शक्तिशाली) यहाँ तक कि वह भी जो (ब्रिटिश) सरकार की नौकरी में भी थे, असन्तुष्ट और बैरी थे; संस्थानों के मुखिया, महान हलधर, साधारण से पालिगर, गाँव के मुखिया, जो अनिच्छा से अपनी उचित एवं प्राचीन स्थिति में, पडौसी अत्यधिक प्रभावशाली एवं धनी खेतिहर रूप में शान्त हुये, वे सब हमारे शासन के विरुद्ध हैं और ब्रिटिश सरकार के प्रति अप्रभावित.......ऐसे समुदाय का निरीक्षण करने में निरन्तर सूचनाओं की माँग रही और बहुत कुछ प्राप्त भी हुआ, उपरोक्त वर्गों में बिना शंका के अस्तित्व को सिद्ध करते हुये, उस भावना के साथ जो अत्यधिक रूप से ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोधी हों; स्पष्ट रूप उत्तर के असन्तुष्टों से पत्र-व्यवहार किया, उस क्षेत्र से क्षतिकार गुप्तचर प्राप्त करने के पक्षधर; अपनो घरों पर राजद्रोहात्मक बैठकें हमारे शक्ति के विध्वंस के लिये आयोजित करते थे।" (सलेकक्शन फ्रॉम पार्लियामेंटरी ब्लयू बुक्स (1934) मार्क कवन पृ. 45) ब्रिटिश आयुक्त, मैसूर के ये शब्द उस समय के क्रान्तिकारियों को संगठन के विस्तृत जाल का एक विचार करने के लिये पर्याप्त हैं, जो उस समय मौजूद थी और मनुष्यों की उनमें ऐच्छिक संलिप्ति थी और उनकी ब्रिटिश सासन के विरुद्ध भावनाएँ अत्यधिक विरोधात्मक थीं।

मैसूर के मुख्य शहर को सम्मिलित करके, मैसूर के अनेक भागों में स्वतंत्रता संग्राम के मध्य ब्रिटिश शक्ति के विपरीत तीव्र एवं विप्लवकारी क्रिया-कलाप हुये। एक बार, मार्क कवन को रहस्यपूर्ण निर्देशों के अन्तर्गत, कुर्ग सिपाहियों का पूर्णत: हथियारों से सुसज्जित एक दल का, मैसूर जिले में श्री रंगपट्टम और उनसे लगेे भागों में उठे विप्लव को दबाने के लिये अचानक पर्दापण हुआ। तत्पश्चात् ब्रिटिश आयुक्त ने कुर्ग निवासियों को शस्त्रास्त्र धारा के कार्य-प्रभाव से मैसूर में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विप्लव दबाने की स्वामिभक्ति की गुणग्राहिता और प्रामाणिक के फलस्वरूप मुक्त कर दिया (विज्ञप्ति दिनाँक 26 फरवरी, 1861)।

सर मार्क कवन, ने मैसूर के महाराजा को अपने पत्र द्वारा मैसूर क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध 1857-58 में उठे आन्दोलन को दबाने में सहयोग प्रदान करने के लिये और बुरे मन्तव्य रखने वालों के तथा बुरे चरित्र वालों के विरुद्ध जो मैसूर में एकत्रित हो गये थे तथा अनिष्ठ पर तुले हुये थे, धन्यवाद ज्ञापित किया। मैसूर गजेटियर प्र. राव ग्र. 2 भाग 4 पृ. 2903)

मैसूर के महाराजा ने सन् 1857-58 में "असन्तुष्ट जिलों" में ब्रिटिश सैन्य-दलों को सहायता प्रदान की। आन्दोलन को कुचलने के लिये ब्रिटिश सरकार को सहायतार्थ 2,000 बलशाली सिलादार घोडे छोड दिये गये (मार्क कवन का पत्र 15 मार्च,1869) आगे, 2 जून, 1860 की एक डाक द्वारा मैसूर के ब्रिटिश आयुक्त और गर्वनर जनरल लार्ड केनिंग का आपस में पत्र व्यवहार हुआ कि मैसूर सरकार ने टुकडी को, उनके जवरिया कूंच में नीलगिरि से लेकर बेलरी तक आत्म समर्पित जिलों की सुरक्षा के लिये सहायता की (पृ.स. 2904) यहाँ यह व्यक्त करना होगा कि बेलारी जिले में तथा बाहर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध 18 जून, 1857 में क्रान्तिकारी सन्देश फैल चुके थे तथा 10 जून, 1857 तक जिलाधिश ने यह सूचना दी कि सीमा प्रान्तों में अन्न भण्डारण अग्नि समर्पित हो चुके हैं। सम्मपूर्ण जिला ही ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जलता हुआ नजर आ रहा था। उसी समय 5वी अल्प-शास्त्रधारी अश्वारोही पलटन तथा 47वी नई पैदल पलटन जो बेलरी में नियुक्ति थीं, उसने आधीन जिलों के आला कमान अफसर को अपनी वफादारी का प्रार्थना-पत्र सौंपा, "वे बंगाल के (गदर) बलबाइयों के विरुद्ध यदि उनकी सेवाओं की आवश्यकता पडे जाने को तैयार हैं। (27 जून, 1857 का प्रार्थना पत्र) परन्तु स्थानीय शासन आत्म समर्पित जिलों के सुरक्षा के प्रति स्वयं अधिक चिंतित दिखाई दिये अपेक्षाकृत इसके कि वे बंगाल फौज के 'भक्त' तत्वों को आपत्ति में सहायता के लियें भेजें।

28 जून, 1860 में लार्ड केनिंग ने अपने सन्देश में यह व्यक्त किया (मैसूर के अफसरों को सहायता प्रदान के लिये खलिता [मार्क कवन, मैसूर के ब्रिटिश आयुक्त] मैसूर के 1857 के अशान्त मध्यान्तर में (1860) महाराजा मैसूर को अपनी 'निश्चल भक्ति' के लिये मैसूर राज्य में 1857 के विप्लव को दबाने में ब्रिटिश सरकार को सहायता प्राप्त कराने के लिये हार्दिक धन्यवाद व्यक्त किया, मार्क कनव के केनिंग को 2 जून, 1860 को भेजे गये सन्देश की सूचनाओं पर आधारित था। यह दूसरी बात है कि एक बार जब कोलाहल दूर हो गया तो लार्ड केनिंग ने महाराजा कृष्ण राजा वोडियार के (जो उन्होंने 232-1861 भेजा) मैसूर राज्य को उन्हें पुन: प्राप्त कराने के प्रार्थना पत्र को ठुकारा दिया (लार्ड केनिंग का महाराजा को 11-03-1962 को दिया गया उत्तर)

मैसूर में 1857 के विप्लव महाराजा की धन्यवाद युक्त सामाजिक सहायता से पूर्णत: कुचल दिये गये। किसी भी प्रकार से, यह कार्य ब्रिटिश सरकार के लिये सरल नहीं था, क्योंकि आंदोलन जनता में फैल चुका था।

2. प्रमुख नेता
कृष्ण शास्त्री मल्हार

3. अन्य विशेष व्यक्ति
अयना भाउ वीरप्पा
झनुउलबदीन

 

4. कैदी
अहमदशाह पुत्र हैदरशाह --- मैसूर के एक फकीर, आयु लगभग 38 वर्ष, अक्टूबर, 1857 को सातारा में गिरफ्तार हुए , 1857 के अधिनियम 25 के अनुसार दोषारोपित हुए अ ौर थाना जेल में कैद रखा गया ।

5. स्त्रोत्र
कर्नाटक ग्रन्थ अभिलेखागार, बंगलौर
साधार-संयुक्त (जी. एवम्) नत्थी
1. (1831 सं. न. 1 से 14)
2. 1856-1857
90 1860 के ,सं. 1 से 8
(भारत सरकार द्वारा खलिता से युक्त दिनाँक 18 जून 1860)
3. 1963 सं. 1 से 18
मुंवई ग्रन्थ अभिलेखागार पी.डी.ग. 28, 1858 का पृ. 153-163 (शोरापुर के राजा का साक्षात्कार)

पौराणिक समा , वा चनालय, बंगलौर
के. एन. बी. शास्त्री संग्रह
पत्र व्यवहार आदि, मैसूर के इतिहास सम्बन्धी (टंकित प्रतिलिपियाँ) वाचनालय-प्रसार सं. 16811 से 16826 भारत सरकार द्वारा सहयोग प्रदान के लिये मैसूर के अफसर को दी गई खलिता [मार्क कवन, मैसूर ब्रिटिश आयुक्त] 1857 (1860) के विवाद काल) मैसूर शासन पर रपट 1858-59।
हलगली के ब्रिटिश प्रतिनिधि रपट 1858-59 मैसूर तथा कुर्ग: गजेटियर, लेविस राइस द्वारा भारत सरकार के लिये संकलित (बंगलौर 1878 (पृ. सं. 197-201)
मैसूर गजेटियर (संस्करण-हयवन्दन राय ग्र. 2, भाग-4 बंगलौर नवीन संस्करण (1930) पृ. 2903 मैसूर राज्य गजेटियर : जिला कुर्म- वी. एन. सयन (बंगलौर 1965) पृ. 78.
मैसूर राज परिवार का वृतान्त, भाग-2 (मैसूर 1922) पृ. 115-118.
महान ब्रिटेन संसद ईस्ट इंडिया (पूर्व भारत) मैसूर, अधिकृत प्रपत्र 112-1866 (लंदन 1866) सरजॉन पी. विलौनी का मतभेद (दिनाँक 18 अगस्त 1863 चालर्स वुड गर्वनर जनरल कौंसल को पत्र दिनाँक 17 जुलाई 1863)
सांसदीय गुप्त विवरणिका संकलन-मैसूर का जन शासन को परिवर्तन अंक, 1-4 (बंगलौर 1934) पृ. सं. 5-45.
मैसूर सरकार के सचिवालय के प्राचीन प्रलेख के संकलन 1832-1867 (बंगलौर 1964 केवल विभागीय प्रयोग के लिये)
F.S.A.P.(A) ग्र. 1 पृ. 147, 166-167
ब्रिटिश आयुक्ल काल में शिक्षा ले. एम. कवन आयुक्त दिनाँक 12 जून 1860 बंगलौर एच. जी. ब्रिगस-द निजाम।
वेेस्टर्न इंडिया (पश्चिमी भारत) जेकब पृ. 204।
दक्षिण भारतीय क्रांतिकारी (इंडिया रिवेलियन) के. राज्जयन स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध 1800-1801 (मैसूर 1971)।
मार्क कनव के अन्तर्गत; मैसूर का प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन ओफ मैसूर) के एन. व्यंकटा सुवा शास्त्री 1834-1861 (लंदन 1932) पृ. 68-87.

बंगलौर स्थित मद्रास की आठवीं घुड़सवार सेना का विद्रोह

जुलाई-अगस्त, 1857
   1857 : जुलाई के अंतिम दिन बंगलौर स्थित मद्रास की आठवीं घुड़सवार सेना का कूच के समय विद्रोह।

फ़रवरी, 1857 में, विजयानगर स्थित एक मद्रासी सिपाही पलटन को कुर्नूल की ओर रवाना होने का आदेश दिया गया। उस पलटन ने ऐसा करने से अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनके परिवारों जो कि साथ जाने वाले थे उनके लिए गाड़ियों का प्रबंध नहीं किया गया था। वास्तव में इस प्रकार की अवहेलना मद्रास सेना में अभूतपूर्व थी। अतः 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभिक दिनों में ब्रिटिश सरकार ने भारतवासियों और ब्रिटिश भारतीय सेनाओं की देशी पलटनों विशेषतः बंगाल की सेना की पलटन के समक्ष यह प्रदर्शन करने का निर्णय किया कि मद्रास सेना की देशी पलटन ब्रिटिश सरकार के प्रति कितनी स्वामिभक्त है।

 

उत्तर भारत में सैनिक विद्रोह का समाचार दक्षिण की समस्त देशी पलटनों में फैल गया। बंगाल सेना के विद्रोहियों के दूत मद्रास सेना के अपने साथी सिपाहियों से संपर्क पर रहे थे और कुछ (मद्रास सैना के सिपाही) ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह की प्रेरणा अपने-अपने स्थानों पर स्थित पलटनों में दे रहे थे। इसी तरह सातवीं मद्रास घुड़सवार सेना के सिपाही जो हैदराबाद में नीयत थे, जून, 1857 में हैदराबाद के लोगों को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह की प्रेरणा दे रहे थे। ऐसे संदेहास्पद व्यक्तियों के मामलों को तुरंत निपटाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक विशेष कानून बनाया और इस प्रकार के लोगों पर दक्षिण भारत में अभियोग चलाकर सज़ाएँ दी। ब्रिटिश सरकार की रपट में ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण असंतोष फैलाने वालों के कार्य इस प्रांत में सरल हो गए। आर्थिक कठिनाइयों के कारण सार्वजनिक निर्माण का कार्य रोक देना पड़ा और इस मंतव्य से प्रसारित आदेश दिनांक 17 जुलाई ने ऐसे समय में भारी संख्या में लोगों को नौकरी से वंचित कर दिया जबकि वर्षा भी कमी और भारी मात्र में अनाज के निर्यात के कारण खाद्य पदार्थ असाधारण रूप से महँगे हो गए थे। धूर्त लोगों ने दूर-दूर तक ऐसी अफ़वाहें फैला दीं कि सरकार की गोपनीय चालों के कारण अभाव पैदा हुआ। इस कारण लोगों के असंतोष में वृद्धि हुई और विजियागपट्टम, बंगलौर आदि स्थानों पर अन्न के लिए दंगे भड़क उठे (मद्रास के न्याय विभाग के सामान्य आदेश सं. 1081-ए दिनाँक 3 सितम्बर, 1857 प्रांत की परिस्थितियाँ)

मद्रास सेना के भारतीय सिपाहियों पर विश्वास करते हुए और भारतीय जनता के समक्ष उनकी ब्रिटिश सरकार के प्रति स्वामिभक्ति का खुला प्रदर्शन करने की उत्सुकता के कारण मद्रास के गर्वनर ने मद्रास सैन्य-दल की संरचना की जिसमें सेना के सभी विभागों के प्रतिनिधि के रूप में समस्त शस्त्र, घोड़े, तोपख़ाने, गोलंदाज और देशी पैदल सैना थी। उसने उस मद्रास ब्रिगेड को जून, 1857 में बंगाल भेज दिया। सैपरस का एक फ़ौजी दल पहले ही स्थल मार्ग से रवाना हो चुका था। केवल घुड़सवार सेना ही शेष थी। मद्रास ब्रिगेड को पूर्णत: घुड़सवार सेना के लिए, मद्रास सेना की आठवीं हल्की सैन्य दल को इस कार्य के लिए चुना गया। वह सैन्य दल बंगलौर में नीयत था। यहाँ वह स्मरणीय है कि उस समय मैसूर राज्य ब्रिटिश सरकार द्वार शासित था।

पलटन के ब्रिटिश अधिकारी पूर्णतः आश्वस्त थे कि पलटन के व्यक्ति ब्रिटिश सरकार के स्वामिभक्त है। जुलाई, 1857 के अन्त में पलटन को बंगलौर से प्रस्थान करने का आदेश दे दिया गया। वे बंगलौर से मद्रास कूच कर गए। सभी सैनिक ऐसा प्रदर्शित कर रहे थे मानों वे अपने सच्चे मन से जहाज पर चढ़ने को तैयार थे। रास्ते में उन्होंने यह माँग रखी कि पहले उनके वेतन और पेन्शन की दरें जो 1833 में परिवर्तित कर दी गई थी उन्हें वापस दिया जाए और जब तक ऐसा नहीं किया जाता वे आगे नहीं बढ़ेंगे। अनाज के लिए हुए दंगों, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है, के परिपेक्ष में बंगलौर की आठवीं घुड़सवार सेना की माँग उचित थी।

एक गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई। पलटन के ब्रिटिश आफीसर कमांडिंग  ने इस विषय पर भारतीय अधिकारियों से वार्ता की और फिर सैनिक व्यायाम स्थल पर मनुष्यों को संबोधित किया। किंतु लोग पहेल अपनी माँगो पर डटे रहे। बाद में उन्होंने अपनी आपत्तियाँ वापस ले ली। सब कुछ शांत लग रहा था। इससे ब्रिटिश आफीसर कमांडिंग घोखा खा गया। उन व्यक्तियों ने घोषित किया कि वे आगे जाने के लिए पूर्णतः तैयार हैं। भारतीय अधिकारियों की विश्वसनीयता पर शक न करते हुए ब्रिटिश आफीसर कमांडिंग ने मद्रास सेना के प्रमुख कमांडर को रपट की कि आठवीं घुड़सवार सेना के सभी व्यक्ति प्रसन्नता से अपना कार्य करने और अपना वादा निभाने के लिए तैयार हैं।

मद्रास प्रतिनिधि के पास श्री पेराम्बदूर स्थित जहाज पर सेना चढ़ने के ढलान के पास पहुँच गई वहाँ से उसके पहले जहाज पर चढ़ने वाली टुकड़ी को आगे बढ़ना था। वहाँ पर पहली बार कमांडिंग अफ़सर को यह भान हुआ कि उसे अभी तक घोखे में रखा गया था। पूरी पलटन ने जहाज पर चढ़ने से प्रतिरोध प्रदर्शित किया। पलटन को अच्छी प्रकार ज्ञान था कि उसे बंगाल इस उद्देश्य से ले ज़ाया जा रहा था ताकि भारतवासियों को यह प्रदर्शित किया जाए कि मद्रास सेना ब्रिटिश सरकार की स्वामिभक्त है। वह युद्ध काल था। राष्ट्र भक्तों के बल ने स्वतंत्रता का संग्राम च्ेड़ा हुआ था ऐसे काल में आठवीं घुड़सवार सेना ने ब्रिटिश शासकों को कृतज्ञ करने से स्पष्ट मना कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने पलटन को ले जाने के लिए जहाज किराए पर लिए थे और उन पर चढ़ने के लिए प्रत्येक प्रकार कि तैयार की थी। उस अंतिम समय में उनको भारतीयों की ओर से ललकार का सामना करना पड़ा। ऐसा मद्रास प्रेसीडेन्सी की रपट 1857-58 कहती है कि "यह प्रयास दबाव डालकर अपनी वास्तविक अथवा काल्पनिक शिकायत को दूर करवाने का प्रयास वे समझते थे कि इस प्रयोग को ऐसे समय किया जाए जब सरकार को उनकी अत्यधिक आवश्यकता हो ताकि संभवतः उनकी माँगों पर सुनवाई हो जाए।"

ब्रिटिश सरकार का आक्रोश सीमा पार कर गया। निम्नलिखित शब्दों में मद्रास सेना के प्रमुख सेनानायक ने गर्वनर-इन-काउन्सिल को भेजी रपट में अपने आक्रोश को प्रकट किया- "उन लोगों ने सरकार को लज्जाजनक स्थिति में ला दिया है, अपने अधिकारियों को लज्जाजनक बना दिया है और संपूर्ण मद्रास की घुड़सवार सेना का गौरव क्षीण किया है तथा आठवीं पलटन पर अविश्वसनीयता और असत्यता की मुहर लगा दी है।"

मद्रास सरकार ने पाया कि संपूर्ण पलटन दोषी है। परन्तु गर्वनर-इन-काउन्सिल ने स्थानीय अफसरों को ही सबसे अधिक दोषी ठहराया। यह माना गया कि स्थानीय अफसर आठवीं तेज घुड़सवार सेना की पलटन के वास्तविक उद्देश्यों को प्रारम्भ से ही जानते होंगे लेकिन वे शांत रहे। उन्होंने पलटन को बंगलौर से रवाना होने दिया और फिर जहाज पर चढ़ने वाले स्थल तक पहुँचने दिया फिर भी वे शांत ही रहे। इस प्रकार सेना की टुकडी के दुर्व्यवहार के उत्तरदायित्व स्थानीय अधिकरियों ने अपने ऊपर ले लिया है। अत: गर्नर-इन-काउंसिल यह समझे कि दंड के भागी मुख्यतः स्थानीय अधिकारी हैं।

तदनुसार गर्वनर-इन-काउन्सिल ने निर्देशित किया कि मद्रास सेना के प्रमुख सेना नायक की राय के अनुसार उन ज्येष्ठ स्थानीय अधिकारियों को तुरंत निष्कासित कर दिया जाय, जो प्रत्येक दल के साथ थे। इसी कारण दो अन्य जो (उस सेना के) लोगों के नेता थे और अपने पद के कारण सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए सक्षम थे और ऐसा कर सकते थे (उनको भी) सेवा से निष्कासित किया जाए। पलटन में नई भर्ती और पदोन्नतियाँ रोक दी जाए। आदेश सें घोषित किए गए आदेश को प्रकाशित किए जाने की तारीख़ से आठवीं तीव्र घुड़सवार सेना के उन पदों की जिन स्थानीय घुड़सवार थे, वेतन रोक दिया गया (सामान्य आदेश संख्या 294, 1857 फ़ोर्ट सेंट जार्ज दिनांक 18 सितम्बर, 1857) अन्य व्यवस्थाएँ जो पलटन के तोड़ दिए जाने पर आवश्यक समझी जाए, प्रमुख सेना नायक द्वारा कर ली जायें। पलटन को तोड़कर अन्य घुड़सवार सेना की टुकड़ियों में सम्मलित कर दिया गया।

मद्रास सेना की प्रत्येक स्थानीय पलटन को गर्वनर-इन-काउंसिल का आदेश पढ़कर सुनाया और समझाया जाना था। स्पष्टत: ऐसा इसलिए किया जाना था कि मद्रास सेना की अन्य पलटनों को कर्मचारियों के विद्रोह की योजना के किसी भी प्रयास को आरंभ में ही कुचल दिया जाए।

2. संलिप्त अधिकारी
   (1) प्रत्येक दल के साथ उपस्थित स्थानीय अधिकारी
   सूबेदार मेजर सैय्यद पीर
   सूबेदार मोहम्मद वजीर
   सूबेदार मोहम्मद इमाम
   सूबेदार सैय्यद मोइदीन
   सूबेदार हनुमन्त राव
   सूबेदार सैय्यद अंसर

   (2) वे व्यक्ति जो सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए सक्षम थे और ब्रिटिश नियंत्रण अधिकारी को दे सकते थे
जमादार एडजुटेन्ट फ़ाज़िल खान
पलटन हवलदार मेजर शेखर हुसैन

3 बंदी (जो दंडित किए गए)

  
सैय्यद पीर
मोहम्मद वज़ीर


मोहम्मद इमाम
सैय्यद मोइदीन


हनुमन्त राव
सैय्यद अन्सेर


फ़ाज़िल खान
शेख़ हुसैन

4 स्त्रोत
   सेंट जार्ज गज़ट (मद्रास) का परिशिष्ट
   शुक्रवार 18 सितम्बर, 1857 पृष्ठ 1-2
   मद्रास सरकार शासनादेश संख्या 294, 1857 दिनांक 18 सितंबर, 1857
   संख्या 1081 ए 1857 दिनांक 3 सितम्बर, 1857
   आठवीं लाइट घुड़सवार सेना के दुर्व्यवहार के बारे में कमांडर-इन-चीफ़ की गर्वनर-इन-काउंसिल (मद्रास) को भेजी गई रिपोर्ट (अगस्त, 1857)
   मद्रास प्रेसीडेन्सी की प्रशासनिक रिपोर्ट 1857-58
   एफ. एस. ए. पी. (ए) खंड 1, पृष्ठ 1, 147, 1854-185।

बिजापुर में संगठन

बिजापुर जिले में सिन्दगी में 1824 में ब्रिटिश विरोधी विप्लव हुआ। बिजापुर स्वयं में भी दिसम्बर को एक विप्लव हुआ। दिवाकर कृष्ण के नेतृत्व में, दो सहयोगियों राजवी रास्ते तथा वेलप्पा थकालकी के साथ 1841 में और भी गम्भीर विप्लव हुआ जबकि वादामी पर नरसिंह दत्तात्रेय पेटकर के नेतृत्व में हमला किया गया। वह एक आंख के व्यक्ति थे। प्रताप सिंह राजा सतारा के लिये, वादामी का विप्लव शपथपूर्ण साथी एवं अभियोग का एक परिणाम था। पेटकर को बाद में पकड़ लिया गया और मृत्यु दण्ड सुना दिया गया जो बाद में काले पानी में परिवर्तित कर दिया गया।

लेफ्टीनेन्ट केर् ने 8 दिसम्बर, 1857 को लेफ्टीनेन्ट कर्नल जी. मेल्कम, दक्षिणी मराठा घुड़सवार टुकड़ी कैम्प कलाड़गी को रपट भेजी कि केर को पूर्ण सूचना है कि 22वीं उत्तरी पल्टन के हवलदार बिजापुर की व्यक्तिगत देशद्रोही बैठकों से सम्बन्धित थे। ऐसी बैठकें शहर के विभिन्न भागों में ब्रिटिश विरोधी विल्पव खड़ा करने के लिये की जा रही थीं। हवलदार को गिरफ्तार कर लिया गया और बन्दी बनाकर सातारा भेज दिया गया, जहाँ उनकी पल्टन नियुक्त थी ।

22वीं उत्तरी भारत की पैदल सेना की टुकड़ी बिजापुर में नियुक्त थी। बिजापुर में अश्व सेना की एक स्कवाड्रन (120 सिपाहियों का दल) भी मौजूद था। फौजी अधिकारी नगर में हलचल वाले 1857 के काल में शान्ति स्थापित करने के लिये उत्तरदायी थे। लेफ्टीनेन्ट विलियम ए. केर बिजापुर दक्षिणी मराठा अश्वरोहिणी सेन्य दल के द्वितीय अधिकारी ने बिजापुर के उप जिलाधिकारी को लिखा (केर का पत्र-दिनाँक 22 जनवरी, 1858 बिजापुर केम्प) कि 4 नवम्बर, 1857 को बिजापुर के बारूद के निर्माता के ठोंधरी के एक मकान से बिजापुर के मामलानदार वप्पू रामबक्स ने 17 मन बंदूक का बारूद शस्त्रों के प्रयोग में आने योग्य पकड़ लिया। ठोंधरी का मकान ब्रिटिश विरोध राजद्रोही गतिविधियों का सांकेतिक अड्डा था। एक हवलदार जिनका नाम शेख अली था इन बैठकों में नित्य के भागीदार थे। बाद में उन्हेंे पकड़ लिया गया और राजद्रोह के अभियोजन पर दोषारोपित हुए। मामलातदार जिन्हें इन बैठकों को तथा उनके देशद्रोही चरित्र का ज्ञान था, लेफ्टीनेन्ट केर को कोई सूचना नहीं दी न ही किसी प्रकार के कोई कदम उठाये गये जब तक कि केर ने स्वयं उन्हें गिरफ्तार नहीं किया। अचानक ही केर को ज्ञात हो गया कि बन्दूक की बारूद का निर्माण राजा जमखिन्डी तथा उनके दो प्रतिनिधि जैन साहब तथा शाहजादे विजापुर के दो जागीरदार और मामलातदार के व्यक्तिगत मित्र के लिये निर्माण किया था। दोनों ही व्यक्ति ठोंधरी के मकान में बैठकों में भाग लिया करते थे। 2 जनवरी, 1858 को जब ठोंधरी के मकान की पुनः तलाशी हुई, जैन साहब और शाहजादे द्वारा हस्ताक्षरित एक पत्र, जमखिन्डी प्रमुख अप्पा साहब के नाम सम्बोधित था, मिला। फलस्वरूप ठोंधरी को गिरफ्तार कर लिया गया। मामलातदार बप्पा रामबक्स ने स्वीकार किया कि, "उपरोक्त विद्रोहियों के पहचान में मैंने अनुचित रूप से कार्य किया।"

यह भी ज्ञात हुआ कि विजापुर के सावकर नारायण दास रागलकोटी को जमखिन्डी से 500/ रु. का धन जैन साहब तथा शाहजादे की सुरक्षा के लिये खर्च करने के लिये प्राप्त हुआ। यहाँ यह ध्यान कर लेना चाहिये कि सरकार ने मनुष्यों को शस्त्र विहीन करने के लिये 28 अक्टूबर, 1857 को एक घोषणा जारी कि और आज्ञा दी कि लोग अपने सभी हथियार एवं युद्ध सामग्री का समर्पण कर देंगे। घोषणा की समय समाप्ति के पश्चात् समर्पण के पूर्व ; डोंगरी के मकान से कैसे भी 4 नवम्बर, 1857 को बारूद की बरामदी की गई। अतः सुरक्षा का एक बड़ा बिन्दु इसमें मौजूद था।

बिलियम केर ने बताया कि विजापुर तालुके का निःशस्त्रीकरण मामलातदार के द्वारा बड़ी अयोग्यता के साथ किया गया। बारूद के चिन्ह अथवा शोरा भूमिगत मार्ग से असीर महल के पास एकत्रित किये जा रहे थे, उनका पता लगा लिया गया। केर ने निष्कर्ष निकाला "मुझे विश्वास है कि मामलातदार अन्य रहस्यों में एक भागीदार है। मैं मानता हूँ कि कोतवाल (नाम से नरस्) तथा मामलातदार का शान्ति भंग के इस प्रयत्न में कोई उद्देश्य होगा जिसमेंे कुछ सिपाही और शहर के लोग सम्मिलित हैं। (मुंबई पी. डी. ग्र. 33, 1858 प. 497-504)

जे. एन. रोज सातारा मजिस्ट्रेट जिनका विजापुर तक न्यायिक क्षेत्र था, ने अपने पत्र में मुंबई सरकार को 28-1-1858 को इस प्रकार अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया कि फौजी तथा नागरिक अधिकारियों के मध्य विजापुर कोई मिथ्याविधि है। (अर्थात् मि. विलियम केर तथा बापू रामबक्स के मध्य) और उन्होंने सरकार को 'स्वीकारोक्तियों' तथा 'भेद प्रकाशन' के प्रति सावधान किया। जैसे कि विलियम केर के द्वारा प्राप्त किये गये। (प.. 50-514)

1 मई, 1858 को विलियम केर ने द्वितीय विजापुर मजिस्ट्रेट डब्लू. सी. पार को लिखा कि केर को किसी अमुक रविवार को नायव रिसालदार पूरन सिंह के माध्यम से देश द्रोहात्मक बैठकें की गई। उसी दिन एक पनवारी नायक आए और केर को चेतावनी दे गए कि विप्लव उनके समीप आ पहुँचा है और हवलदार शेेख इस कार्य के लिये निरन्तर मिलते रहे है। मोहम्मद अली नाजिर हुसैन तथा कृष्ण घई द्वारा यह सूचना इसी प्रकार के खुफिया सूचना से मेल खाती है; जिसे वेनकु माधव पवार तथा राजवी राघववेन्द्र तवी ने प्रदान की।

पार ने, इस प्रकार से की गई जाँच के आधार पर जे. एन. रोज को अपने पत्र, दिनाँक 13 मई, 1858 में व्यक्त किया कि राज-द्रोही बैठकें मोहनी कसबीण, डोंगरी की बहिन के घर हुई ; डोंगरी के घर नहिं हुई, जैसा कि लेफ्टीनेन्ट केर बता चुके हैं। किसी भी प्रकार से डोंगरी और उनका पुत्र हुसैन भी इन देशद्रोही कार्यों मे सम्मलित थे।

मुंबई की सरकार ने अपने खुफिया विभाग में जे. एन. रोज मजिस्ट्रेट सातारा को लिखा ( पत्र सं. 306, 1858 दिनाँक 13-8-1858 विजापुर के मामलातदार वप्पू रामबक्स) सबसे पहले तो निलम्बित कर दिए जाने चाहिये; जब तक कि लेफ्टीनेन्ट सेण्डफोर्ड (विजापुर का अभियोग सुनाते है) जो सम्भावित रूप से सन्तोषजनक निष्कर्ष निकाल सिद्ध कर सकते हैं कि वह (मामलातदार) जमखिन्डी के प्रमुख के लिये बारूद के गुप्त निर्माण के लिये सचेत थे तथा उन्होंने बारूद निर्माताओं को पूर्व में इसके विषय में सूचना प्रेषित करने को कहा था। उसने डोंगरी को भी सचेत किया था। उन पर आरोप था, "यदि तुम यह कहते हो कि बारूद जमखिन्डी के प्रमुख के लिए निर्मित किया जा रहा था, तुम्हें काले पानी की सजा दे दी जायेगी।"

बापू रामबक्स के अनुसार मामलातदार को अगस्त 1858 में निलम्बित कर दिया गया। पूछताछ की गई परन्तु न तो उनके प्रति न जैन साहब न शहजादे के विपरीत कोई प्रमाण पत्र प्राप्त हो सके। किसी भी प्रकार से मामलतादार के हटाये जाने के पश्चात विजापुर शहर में शस्त्रों का बडा जखीर पकडा गया।

सन् 1858 में विजापुर शहर के प्रत्येक क्षेत्र से स्वतन्त्रता संग्राम की लपटें फैलने लगीं निजाम के क्षेत्र के पूर्व में धारवाड जिले में नारगुन्द में दक्षिण में और पश्चिम में मधुल को घेर लिया। इस प्रकार जिले के सीमान्त गाँवों में ब्रिटिश विरोधी चोरी छिपे विप्लव क्रिया-कलाप निरन्तर चलते रहे। हिप्यारगी तालुका में जाम्बगी के बसलिंगप्पा देशमुख, चाँद कावटे के देशमुख और शिरशेही के देशमुख शोरापुर में देश के साथ विभिन्न क्रिया-कलापों की योजना बनाई। गोवार के गौडय्या पटिल ने शोरापुर में मध्यस्थ का भी कार्य किया। उन्होंने शोरापुर, विजापुर, बसलिंगप्पा में कार्य किया और स्वयं फौजी व्यक्तियों की भर्ती की तथा नाना साहाब पेशवा ने शोरापुर व बसलिंगप्पा तक आने की घोषणा की तथा उनके बेटे को ब्रिटिश सरकार के लोगों ने गिरफतार कर लिया तथा कोटनल के किले तथा जाम्बगी के मकान से बहुत बडी मात्रा में शीशा जब्त कर लिया गया। कोटनल का किला गिरा दिया गया। बसलिंगप्पा पर अभियोग चला और वे दोषारोपित हुए (मृत्यु दण्ड मिला) और उनका राज्य छीन लिया गया।

ब्रिटिश सिपाहियों की पैदल सेना जिसमें अश्वारोही टुकडी भी थी। 400 शस्त्रधारी और विजापुर की तोपे लेफटीनेन्ट केर के अन्तर्गत रखी गई जो वहाँ 1869 तक रहे।

2. प्रमुख नेता और अन्य

बाप्पू रामब क् स,
मामलातदार, वि ज् ाापुर ।

धोंगरी
शेख अ ली हवलदार

ज् ौन साहब शग ज् ाादे


ज् ामखिन् ड ी के प्रमुख
नारायण दास बागल को ट ी

मोहमेमद अ ली नाि ज् ार हुसैन


कृष्णाप्पा घ् ा इ र्
मोहनी ( ड ोंगरी की बहिन)

हुसैन ( ड ौंगरी का पुत्र)


च् ाान्दकव ट े के देशमुख
शिरीष शेट्टी के देशमुख

(गोवार के) गो ड प्पा पाि ट ल


( ज् ााम्बगी के) वासलिंगप्पा के पुत्र

3. कैदी
शेख अली (हवलदार) डोंगरी

4. स्त्रोत
मुंबई पुरा-अभिलेखागार (राजनैतिक विभाग ग्रन्थ)
1958 : ग्र. 20, पृ. 101-107
ग्र. 33 पृ. 405-504, 509-514, 519-542, 547, 551, 553.
ग्र. 34 पृ. 203-204
जिलाधीश कार्यालय, विजापुर आलेख
एफ. एस. एच. ग्र. 2 प 10 ।
मुंबई जिला गजेटियर ऋ. 23 विजापुर (मुंबई 1884)

कारवार में विद्रोह

फ़रवरी 1858 दिसम्बर 1859
1858 : फ़रवरी, राज भक्तों ने दर्शनी गुड्डा पहाड़ी पर सुदृढ़ मोर्चा बना लया।
1858 : 24 फ़रवरी, दर्शनी पहाड़ी पर ब्रितानी सेना का हमला।
1859 : 7 अप्रैल, सिद्धि बस्तियों का येल्लापुर, पुन्सोली आदि पर हमला।
1859 : 5 जुलाई, हामोद के जंगलों में मुठभेड़। चिन्तोबा फड़निस मारे गए।
1859 : अगस्त सिद्धि बास्तियाँ एक मुठभेड़ में मारे गए।
1859 : 5 दिसंबर, डिग्गी पहाड़ियों में मुठभेड़।
1860 : फ़रवरी, राघोबा भड़नीस को फाँसी।
1860 : जून, शांताराम फड़नीस और सिद्धि बिनोके को फाँसी।

कारवार में सावंतवाड़ी क्षेत्र के साथ ही विद्रोह हुआ। ब्रिटिश सरकार को संदेह था कि इस क्षेत्र के प्रमुख बंदियों के नाना साहब पेशवा से निकट संपर्क थे। जे. डी. रोबिन्सन कन्नड़ के ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट ने ब्रिटिश सरकार के आदेशानुसार जनवरी, 1858 को विद्रोही नाना साहेब पेशवा से संबंधित अनुयायियों और पक्षधरों की एक सूची प्रस्तुत की। सूची में निम्नांकित नाम थे (1) नाना साहब पेशवा के रिश्तेदार (सभी छितपावन ब्राह्मण):

1. सांगली के चिंतामणि राव के दत्तक पुत्र, 2. शाहपुर के चिंतामणि राव के पुत्र तांत्या साहब, 3. नारगढ़ के बाबा साहेब, 4. रामदुर्ग के राव साहब, 5. जामखिण्डी के भाऊँ साहेब, 6. कुरूंडवाड़ के अप्पा साहेब और 7. मिराज के बाबा साहेब 8. पक्षधर: खानापुर के निकटस्थ जामबोटी के नाना देसाई (मराठा), 9. नवलगुन्द के देसाई (लिंगयातः) 10. सोमनकोप के देसाई (देश ब्राह्मण) 11. कुडची के देसाई (देशस्थ ब्राह्मण), 12. बनाची के यलप्पा गौड़ा (मराठा), 13. इंदुर के कोनटपा (लिंगायत) 14. हल्याक के रघुनाथ राव देशपांडे (शेणवी), 15 हल्याक के विश्वनाथ राव देशपांडे ( शेणवी), 16. हलियम के निकटस्थ जावल्ली के चिनप्पा (शेणवी) 16. जावेल्लो के गोकलाप्पा (शेणवी), 18. सुपातालल्लुका के कोडली के लक्ष्मण राव देसाई 19. टिन्नाई सुपाताल्लुका के बालपा देसाई (शेणवी) 20. सुपाताल्लुका के कार्तिल के बालाजी राव, 21. सुपाताल्लुका के हथखम्भे के चाँदबा देसाई (शेणवी)

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्रितानियाों के बंगाल फ़ौज से भागे हुए भी कुछ लोग कारवार क्षेत्र में पाए गए थे। उदाहरण: 76वीं बंगाल स्थानीय पैदल सेना के मथुरा प्रसाद उर्फ़ ललित प्रसाद फ़क़ीर के भेष में धूमते हुए पाए गए थे और उनको गिरफ़्तार करके सिरसी जेल में भेज दिया गया था (दिसंबर, 1857)। बंगाल सेना के सुल्तान प्रसाद भी इसी प्रकार सिरसी भेज दिए गए। पहली दिसंबर, 1858 को जी. ए. गैलार्ड, उतरी कन्नड़ के विशेष आयुक्त ने निम्नांकित नेताओं को पकड़कर 30 नवंबर, 1858 से एक महीने के अंदर कारवार में ब्रिटिश सरकार के हवाले करने के लिए पारितोषिक घोषित किए: तिनाई गणोवा, शेणवी, 2. सिद्धि बस्तियाँ, 3. सिद्धि विनोवे, 4. रावबा फड़नीस, 5. सांता फड़णीस, 6. चितोबा फड़णीस, 7. चम्पोली निलुबा देसाई, 8. पीतोदी मुरार देसाई, 9. भीकू विंजोलेकर, 10. भानु दिवाली विन्जोलेकर, 11. बबलू करमबेलकर, 12. पंचेलीराम देसाई, 13. पंचेली नीलू, 14. पंचेली मारूति और 15. गोडसेठ कृष्णामजी। पुरस्कारों की जो राशियाँ पहले थीं उन्हें बाद में बढ़ा दिया गया। उदाहरणत: फड़णीस भाइयों को पकड़वाने का इनाम पहले 100 रू. प्रत्येक घोषित किया गया था उसमें अप्रैल, 1859 में वृद्धि करके 1000 रू. प्रत्येक कर दिया गया। ऐसा ही सिद्धि बेनोवे के विषय में भी किया गया। अप्रैल, 1859 तक सूची के नामों में भी वृद्धि की गई जैसे घोंगलु करमबेलकर का नाम।

कन्नड़ के जंगलों में मौजूद बंद मनुष्यों की पुरूस्कार सूची

1  रावबा रू. 1000/- क्रमांक 3 एवं 4 के चेचेरे भाई
2  अन्ना साहेब रू. 100/- भाई
3  सांता रू. 1000/- भाई
4  बाला रू. 500/- भाई
5  सिद्दि बेनोवे रू. 1000/-
6  फोन्टू गूरवाब रू. 500/-
7  शोगलू रू. 100/-
8  नागू रू. 100/-
9  बन्लोह रू. 100/-
10  शंकर रू. 100/-
11  गोपाल रू. 100/-
12  पोट्टे गुमककर रू. 100/-

13  नुन्नु 18 तुम्मा (ऐसा समझा गया कि दोनों को उनके विषय में विवशता है अतः पुरस्कार रोक दिया गया।

कैंप चम्पोली (हस्ताक्षरित) एच. अमेस,
12 अगस्त, 1859 आयुक्त, उत्तरीकनेड

नेता और उनके आदमी, कारवार सुपा और बिदी के जंगलों में रह रहे थे। जंगल में रहने वाले लोगों का नेतृत्व तीन फड़णीस भाईयों ने सम्भाला हुआ था- वे तीन थे राघोवा उर्फ रावबा फड़णीस, चिन्तोबा फड़णीस और शांता राम फड़णीस। दो सिद्धि नेताः बस्तियाँ और बिनोवा, सुपा और तटीय क्षेत्र की झड़पों का नेतृत्व कर रहे थे। एक और महत्त्वपूर्ण नेता थे नाना तलेगाँवकर जो कारवर और गोवा के मध्य क्षेत्र में लड़ रहे थे। अन्नतः उन्होंने और उनके चार साथियों ने गोवा के पुर्तगाली नियंत्रक के समक्ष समर्पण कर दिया, उनको बाद में पुर्तगालियों ने तीमोर भेज दिया। राष्ट्रभक्त सेनाओं और ब्रितानियों की लडाई उत्तर, पूर्व और दक्षिण कारवर में फैल गई जिनमें मंगलौर सहाशिवगढ़ अंकोला, हान्नावर, सुपा, दाण्डेली, हल्याव येल्लापुर, उलावी, सिरसी आदि स्थान थे। इस प्रकार मलिंग मंदिर के पास भयंकर मुठभेड हुई।

दांडली के निकट हुई मुठभेड़ में विप्लवकारियों के नेताओं में से एक अंतु सिद्धि थे। मंगलोर होनोवा और दूसरी जेलों मे कैद, जो 1857-58 के बलवों में किए गए अपराधों के लिए सजा काट रहे थे, बहुत से व्यक्ति ऐसे थे जो कारवर क्षेत्र में पकड़े गये थे।

सिरसी क्रांति के प्रमुख केंद्रों में से एक था। थामस ओगिलवी घारवाड़ के मजिस्ट्रेट ने बम्बई प्रशासन गोपनीय विभाग के एच. एल. एण्डरसन को 6 फरवरी, 1858 को लिखा : च् मैं डम्बल के मुख्यालय शहर गुडडक (गदग) में गया...कुछ दिन रूककर जब मैं इम्बाम को प्रस्थान करने वाला था मुझे अपनी पश्चिमी सीमा के भीतर और उत्तर कन्नड़ जिलों में विप्लव होने की गुप्त सूचना मिली और सिरसी के मजिस्ट्रेट की ओर से सहायता की जोरदार माँग आई (पत्र संख्या 959 वर्ष 1858 दिनाँक 3 जुलाई, 1858 : एच. एफ. एम. के खण्ड पृष्ठ 468-474)

इस जिले की गोवा  और सावन्तवाड़ी से समीपता होने के कारण गोवा में सत्तारी महल के दीपूजी राणे और सावंतों के द्वारा उठाए गए विद्रोह से कारवार के भी आसपास ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह की प्रेरणा मिली। इस कारण सोमनकोप के देसाई, जिनके कुडची तालुका के गाँव कारवार की सीमा से लगे थे, सावन्तों के पक्ष में हो गए। सिद्धि बस्तियाँ भी भारतीयों की ओर से अग्रणी थे। 7 अप्रैल, 1859 को उन्होंने येल्लापुर और उसके पश्चात् अन्य स्थानों यथा पुनसोली आदि पर हमला किया। कारवार क्षेत्र में भीक्खु बिनजोलंकर को ब्रितानियों ने हरा दिया और बाद में उन्हें जासूस बनाकर नौकरी पर रख लिया (जून, 1859)। ब्रिटिश सरकार को फिर उस पर संदेह हुआ। अतः उसे मृत्युदंड दिया गया; बाद में नवम्बर 1859 में उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया।

5 जुलाई 1859 को कारवार के जंगलो में, जहाँ चिंतोबा फड़णीस मारे गए थे वहाँ भयानक मुठभेड़ हुई। अप्रैल, 1859 में सिद्धि बस्तियाँ फिर से बड़ी प्रबलता से उठ खडे हुए, परन्तु वह उसी वर्ष अगस्त में ब्रितानियों के साथ हुई एक मुठभेड़ में मारे गए।

5 दिसम्बर, 1859 की रात को ब्रिटिश फौज के ले. गिट्जेन, ड्रेवर, राघोवा और शांता फड़णीस भाईयों के मध्य एक और बड़ी मुठभेड़, कारवार के डिंगोली जंगलों में डिग्गी के समीप हुई। इस मुठभेड़ में, बबलू करमवेल कर, एक नेता तथा गनुबा देसाई, एक पुर्गगाली प्रजाजन, उसी रात को मारे गए। राघोबा, जो कि घायल हो गए थे, पकडे गए और बाद में जग्गलेबट में उन्हें जंजीरों से फाँसी दी गई (फरवरी, 1860)। शांता और बिनोवे को भी बाद में पकड़ लिया गया और जंजीरों से फाँसी दे दी गई (जून, 1860)। नेताओं की इतनी भारी जन हानि के कारण कारवार के जंगल क्षेत्र में भारतीय पक्ष की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो गई।
1  प्रमुख नेता

राघोबा उर्फ रावबा फड़णीस
चिंतोवा फड़णीस

शांताराम फड़णीस
बस्तियाँ सिद्धि

बिनोवे सिद्धि (बस्तियाँ और विनोवे भाई थे)

2  अन्य विशेष व्यक्ति

नाना तलेगाँवकर
अण्णा माणगोवकर

बबलू करमबेलकर
तिनाई गनोबा शेणवी

चम्पोली नीलूबा देसाई
पितादेमुरार देसाई

भिक्खू विन्जोलेकर
थानो देवली विन्जोलेकर

पंचेलीराम देसाई
पंचेली नीलू

पंचेली मारूति
गोडसेठ कृष्ण जी

घोंगलु करमबेलकर
अन्तू सिद्धि

पोदु काब
येल्लाप्पा गौडा

कोन्टप्पा गौंडा
रघुनाथ राव देशपांडे

विश्वनाथ राव देशपांडे
चिन्नप्पा

गोपालप्पा
बालाजी राव

नान हमरासकर


नाना देसाई (जम्बोती का)
नवलगुन्दका देसाई

सोमन कापका देसाई
कुडची का देसाई

लक्ष्मणराव (कोदली का)
बालप्पा देसाई (तिनोई का)

चन्दबा देसाई (हातखम्बे का)

3  शहीद

चिंतोबा फड़णीस (हामोद के जंगलो में 5-7-1859 को मारे गये।)
राघोबा उर्फ रावबा फड़णीस (फरवरी, 1860 में जग्गलवेट में जंजीरों से फाँसी दी गई)
शांताराम फड़णीस (जून, 1860 में जग्गलवेट में जंजीरों से फाँसी दी गई)
बस्तियाँ सिद्धि (अगस्त, 1859 में मुठभेड़ में मारे गये)
बबलू कारमबेलकर ( 5-12-1859 को डिंगोली के जंगलों में मारे गये।)
भिक्ख विंजोलेकर भंडारी (फाँसी, नवम्बर, 1859)
गोपाल भण्डारी (काला पानी की सजा दी गई- अन्डमान के रास्ते में जून, 1860 में मृत्यु हो गई)
गनुबा देसाई ( पुर्तगाली, नागिरक डिंगोली के जंगलो में डथग्गी में हुई मुठभेड़ में मारे गये 5-12-1859)
(छः आदमी 4 जून, 1858 तक फाँसी पर लटकाये गये-इनके नाम अभी तक सुनिश्चित नहीं है। संदर्भ के लिए देखे बंदियों की सूची।)

4 बन्दी

जे. डी. राबर्टसन, विशेष आयुक्त उत्तरी कन्नड़ की ओर से मद्रास सरकार के प्रमुख सहायक को, जग्गलवेट से 4 जून, 1858 को लिखा गया पत्र सं. 326 आयुक्त के अन्तर्गत मेरी कमिश्नरी में चलाए गए अभियोगी के निर्णय (जैसे कि किनारे पर दर्शाये गये है 4-6-1858 तक) इस प्रकार हैं-

इनमें से कई प्रभावशाली मराठा जमींदार और पटेल हैं।

फाँसी   6
 
आजीवन कालापानी    7
 
14 वर्ष का सश्रम कारावास       11
 
14 वर्ष से कम का सश्रम कारावास       22
 
जमानत माँगी गई      10
 
बरी     26
 
कुल     82

मेरे जिले में केवल 2 या तीन बंदी ऐसे हैं जिनके विषय में न्यायिक जाँच करानी शेष है, परन्तु मेरे पास लगभग 30 ऐसे विद्रोहियों के विरूद्ध अधिकार पत्र हैं जो सीमा पार भागे हुए हैं और अभी छूटे हुये हैं। इनके अलावा दो कुख्यात खुरदार गुनाबा शेणवी और बस्तियाँ को गिरफ्तार करवाने के लिए सरकार ने क्रमशः रू. 1000/- और रू. 500/- के इनाम घोषित किए हुए हैं।

फरार अपराधी, जिन्होंने अभी तक समर्पण नहीं किया है, उनकी स्थायी सम्पत्ति और मकान मैंने कुर्क कर दिए हैं। मेरे द्वारा जिनको सजा दी गई है उनके अलावा 21 अपराधी ऐसे हैं जिन्हें बैलार्ड के न्यायालय से भेजा गया है और उन्हें घारवाड़ जेल भेज जाना है।
आजीवन कालापानी की सजा - (राजद्रोह उकसाने और सहायता करने के लिए)
विठु गावाली
गोपाल भण्डारी (अण्डमान के रास्ते में मर गए)
संत सली गोपाल (पेंटन्टियरी मद्रास में मर गए)
पंचेली गोविंद देसाई (मृत्युदंड स्थगित आजीवन कालापानी की सजा)
कोन्कनकर बोम्बई बिन लक्ष्मण (मरहठा)
गणेश मिरांशी बिन कृष्ण संतरेकर
नाराजी कर भिक्खू (शूद्र)
जोरेकर बाबी बिन थोकोबा (शूद्र)
गानू बिन सखाराम (भण्डारी)
मौन बिन अप्पा सावन्त (मरहठा)
मिंगाली बिन क्रिसतुन (क्रिसचियन)
नारायण मिराशी बिन कृष्णा सतरकर
बिठू बाबा बिन पाया बाबा (मरहठा)
नारायण देसाई बिन कृष्ण (मरहठा)
पन्जाली पाक बिन शबा देसाई (मरहठा)
नुजाकर विठोबा बिनकृष्ण मुलिच (मरहठा)
राघोबा बिन (सबादेसाई (मराठा)
विठू बिन डुल्लु देवेल्ली (हलवी)
लक्ष्मण बिन कृष्ण मुलकुन्डी (मरहठा)
बिसाई बिन भिक्खु रावल (मरहठा)
चमन सिंह उर्फ तिआन सिंह, पुत्र शिवदयाल
(इन्दौर; सिविल सर्जन की रपट के अनुसार देश निष्कासन के पश्चात् पागल हो गये)
अम्बाला नानू (जग्गल वेट के)
अन्जो (जग्गल वेट का)
जेवाहकिटीप्पा (जग्गल वेट के)
जोगी मल्लिक (सूपा के)
कुपासन (सूपा के)
महार गोविन्द (सूपा के)
तिनाजा (सूपा के)
रोवयो (सूपा के)
रघु जाधव (कारवार के)
रायु (कारवार के)

(घारवाड़ जेल के कन्नड़ विद्रोही जो 1 वर्ष या उससे अधिक की कैद की सजा पाए थे उन्हें मुंबई शासन द्वारा अन्डमान भेजा जाना था, मद्रास शासन को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी (मद्रास न्यायिक प्रक्रिया संख्या 156-157 दिनाँक 23-6-1860)

कारवार के कुछ विद्रोही, जिन्होंने पुर्तगाली सरकार के समक्ष समर्पण किया था, उन्हें तिमोर भेज दिया गया। देखें च्सावंतवाडी में हुए विद्रोहछ

अन्य बन्दी (विद्रोह भड़काने और उकसाने के आरोप में)

बाबू देसाई

 गनुबा देसाई  

महार वानको

 सुल्तान प्रसाद (बंगाली फौज)

 मथुरा प्रसाद उर्फ ललिता प्रसाद (बंगाली फौज)

थान्नी थान्दुम

 सिंगेराव गनुबा देसाई

मान्डु

 कमेरीकर केसारू

रामा

 भीखु

पुनो

 गन्नू नाइक

लिंगोजीराव

 किन्नर हावू

हाउकन हावू

 पैको

अम्बीर होन्ना

 थामू

सोमा

 ढामू

दादू

 बावजी

गुइरिया

 अम्बीर बाबू

कुलो (किन्नर के)

 सोइरू सोनू (हलागे के)

गुनो (हनाकन के)

 मार्टिनी प्रभा (दक्षिणी कन्नड़)

नरेश (नारायन)

 विठोबा

बेरजी दाबू

 विठूगावली

गुना गौडा

 पेदेरू

नुजाकर शबा

 सारो मुडवाल

अप्पा चौधरी

 बोमनेया सोम गौरा

पुन्दालिका

 गोरक गौदी

डुंगरवाड़ी आनन्दराव

 राम सावन्त

अप्पा देसाई

 सन्थालिंग देसाई

कलप्पा देसाई

(मद्रास न्यायिक परामर्श की नत्थियों में उपलब्ध अन्य सूचियाँ)   
 

1. कैदियों की सूची , जिन्हें मि. जे. रॉबिन्सन, कन्नड़ के मजिस्ट्रेट ने 1857 के 14वें एक्ट के अन्तर्गत, अपराधी घोषित किया और जिनकी सजाएँ 18 जनवरी, 859 की परामर्श संख्या 64 के लिखित आदेश के अन्तर्गत घटा दी गई थीं (आरोप : विद्रोह को उकसाना और सहायता करनी) टी. एल. (ट्रान्सपोरोशन ऑफ लाइफ) निर्वासन, सश्रम, कारावास

कैदियोंकेनाम

पहलेदीगईसजा

घटाईहुईसजा

अन्नागोइ

टी. एल.

7 वर्ष की आई. एच. एल.

कल्लोइ

10 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

जीवाकर टिप्पा

टी. एल.

14 वर्ष की आई. एच. एल.

नरेया

10 वर्ष की आई. एच. एल.

5 वर्ष की आई. एच. एल.

विठोबा

8 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

बिरजी डावू

8 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

गोवली विट्ठ

8 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

नारायण मीरासी

14 वर्ष की आई. एच. एल.

8 वर्ष की आई. एच. एल.

नेट्टू बाबा गावूगली

10 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

गूना गौडा

5 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पन्जाली पौको

14 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पन्जाली नूजकरविट्ठ

14 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पेड्रो

5 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

नूजकर शबाब

8 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

सोरो मुदवल

6 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

अप्पा चौधरी

5 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

गवूगल्ली सूकू

8 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

बोमेनेया सोमगौडा

7 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

फर दो दावली

7 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पूरसो

7 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पुंसोली खूंदालिका

5 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पुन्सोली ज्येनेगोगुदी

5 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

पठोइ धूरी

7 वर्ष की आई. एच. एल.

3 वर्ष की आई. एच. एल.

2. कैदियोंकीसूचीजिन्हें मि. जी. एस. बलार्ड, उत्तरी कन्नड के विशेष आयुक्त ने अपराधी घोषित किया-जिनकी नियुक्ति एक्ट 14, 1857 के अन्तर्गत हुई थी, जिनकी सजाएँ परामर्श सं. 64 दिनाँक 18 जनवरी, 1859 के अन्तर्गत घटा दी गई थी। (आरोपः विद्रोह को उकसाना और सहायता करना)

कैदियों के नाम

पहले दी गई सजा

घटाई गई सजा

गोई सेठ राई

टी. ल.

14 वर्ष की आई. एच. एल.

तिमाजी

टी. एल.

14 वर्ष की आई. एच. एल.

कुन्दल झूलपो देसाई

टी. एल.

14 वर्ष की आई. एच. एल.

कुन्दल दूल्हा देसाई

टी. एल.

14 वर्ष की आई. एच. एल.

राघोवा देसाई

14 वर्ष आई. एच. एल.

8 वर्ष आई. एच. एल.

कालुपा देसाई

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

सन्तुलिंग देसाई

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

झालावुली अप्पा देसाई

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

झालावली राम सावन्त

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

खेरदो वालीफ

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

हखम्मे विनोबा देसाई

14 वर्ष

8 वर्ष आई. एच. एल.

डूंगर वाडे अनुन्द्रोव देसाई

8 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

गोदसेठ नरियाना देसाई

14 वर्ष आई. एच. एल.

8 वर्ष आई. एच. एल.

दावुली पांचो

14 वर्ष

8 वर्ष आई. एच. एल.

पुत्ता देसाई

14 वर्ष आई. एच. एल.

8 वर्ष आई. एच. एल.

बिक्कार मलिक

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

शिंकरगव गुनुबा देसाई

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

डूंगरवाडे निलाबा देसाई

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

इवेली पांडु मलिक

10 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

केसरूईर महोदव गौडा

14 वर्ष आई. एच. एल.

8 वर्ष आई. एच. एल.

मौदू

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

देवुली विठू

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

विरमोली सुकुडिया

14 वर्ष आई. एच. एल.

8 वर्ष आई. एच. एल.

गोमाजी

12 वर्ष आई. एच. एल.

7 वर्ष आई. एच. एल.

कामेक केसरू

8 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

केसरेकर बिक्को

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

लिंगो

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

मल्लो

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

विट्ठ

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

बापी

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

रामा

8 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

भिक्कू

7 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

पुनो

8 वर्ष आई. एच. एल.

3 वर्ष आई. एच. एल.

शाबुद्दीन

टी. एल.

14 वर्ष आई. एच. एल.

मद्रास के पुलिस आयुक्त को भेजी गई सूची जिसमें कैदियों के कपड़े इत्यादि के बेचने से प्राप्त राशियाँ दर्शाई गई थीं।

कैदी का नाम जिनका सामान था

धनराशिजोविक्रयसेप्राप्तहुई

 

 

रू

पै.

कुन्डल जलपो देसाई

0

4

0

हथखम्भा चुहुबा देसाई

0

2

8

केसरेकर महादेव गोडु

0

3

0

झालावाली गोपाल देवली

0

4

0

मौडु

0

2

6

झालावाली माली देवाली

0

2

9

झवलीकर नारायन

0

8

0

बापी

0

1

1

डूंगरवाडे निलोबा देसाई

0

9

0

कुन्डल डुलुबा देसाई

0

2

3

बिरनोली सुकुडिया

0

7

3

देवली मोअना

0

2

6

जाजेगले बाले मलिक

0

5

0

विट्ठू

0

4

0

इवली पान्डु मलिक

0

4

9

शिंगरागर गनुबा देसाई

0

3

0

सुकल्या

0

1

3

दवले विट्ठू

0

8

6

केसरेकर भिक्कू

0

15

0

गोमाजी

0

5

0

काम्ब्रेकर केसरू

0

4

6

रामा

0

5

0

लिंगो

0

2

0

मिको

0

3

2

पुनो

0

3

10

शोबुदीन

0

1

6

वेनकु

0

2

6

गना बाबा नागोडे (27-12-58को मृत्यु)

0

1

6

केसरले गोपाल गौडु

0

3

6

गवेलगोल डोलेगो

0

8

6

योग

8

4

6

(हस्ताक्षरित) जे. सी. वोल्डरसन
पुलिस आयुक्त

(श्री जे. एन. ओ. फ्रेंकालिन सुपरिटेन्डेन्ट ऑफ मेरीन की ओर से चीफ सेक्रेटरी प्रशासन सेंट जार्ज को लिखा पत्र सं. 22 दिनाँक 4-1-1859)

श्रीमान, 33 कैदी, जिनका संकेत दूसरे तार जो 25 नवम्बर की परामर्श सारांश संख्या 468 में किया गया था और जो डलहौजी के द्वारा मद्रास लाए गये हैं, मैं उनको अंडमान भेजने के विषय में आपके निर्देश की प्रतिक्षा कर रहा हूँ।

4. जे. डी. रॉबिन्सन, ज्वाइंट मजिस्ट्रेट कन्नड़ की दिनाँक 10 मार्च, 1859 की संस्तति के अनुसार प्रशासन का मत है कि स्थायी सम्पत्ति के राजयाधिकार की सजाएँ निम्नांकित विद्रोही कैदियों के परिवारों के पक्ष में कर दी जाए: चीफ सेक्रेटरी, मद्रास प्रशासन, परामर्श सं. 428 दिनाँक 29 मार्च, 1859।
र्काकोनकर विठोवा और उनके छोटे भाई
बिरजी देवू
पटेल चूडा देसाई, उनके छोटे भाई
विट्ठोबा देसाई
पटी डूरे
सोम गौडा
गूनो गौडा
नारायण मीरासी और गुनुबा मीरासी
केसरेकर भिक्कू, महादेव और मौडु
नारायण मलिक
झुल्पा दून्ला
शबा देसाई, कलुपा देसाई, अप्पू देसाई और शिवलिंग देसाई
जोगा मलिक
गूदसेठ तुमाजी
नोजी विट्ठू मलिक
खेरदा वलीफ
आनंदराव देसाई
भिखारी मलिक
डूँगरवाड़ा निलवा देसाई
सिंगरगौम गुनुबा देसाई

नोट: च् उपरोक्त सूचियाँ मूल परमार्श के उद्धारम्भ है छ उनको इस आशय से यहाँ उद्धत किया जा रहा है कि यह प्रकट हो सके कि विद्रोही कैदियों की स्थायी सम्पत्तियाँ, यहाँ तक कि उनके वस्त्र भी, छीन लिए गए थे।

सजाओं की माफी या कटौती राजनीतिक आधार पर की गई थी। यहाँ यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि ब्रितानी अफसरों के भारतीय नामों से परिचित न होने के कारण एक ही नाम को विभिन्न सूचियों और पत्र-व्यवहार में अलग-अलग वर्तनी (स्पेलिंग) से लिखा गया था। कभी-कभी इस कारण व्यक्तियों और स्थानों की पहचान में कठिनाई आती थी।

5  स्त्रोत:

तमिलनाडु पुरालेख, अभिलेखागार मद्रास फोर्ट जार्ज प्रशासन, मद्रास
न्यायिक प्रक्रिया : परामर्श दिनाँक
30-6-1857; 29-9-1857.
26-1-1858; 23-2-1858; 9-4-1858; 13-4-1858; 8-61858; 8-6-1858;
2-7-1858; 21-9-1858; 12-10-1858; 9-11-1858; 21-12-1958.
18-1-1859; 1-3-1859; 4-1-1859; 5-1-1859; 16-3-1859; 22-3-1859; 18-4-1859; 12-4-1859; 21-4-1859; 26-4-1859; 29-4-1859; 30-4-1859; 10-5-1859; 10-6-1859; 11-7-1859; 29-7-1859; 25-8-1859; 26-8-1859; 3-9-1859; 8-11-1859; 26-11-1859; 30-11-1859; 3-12-1859; 13-12-1859; 23-12-1859.
6-1-1860; 30-1-1860; 8-2-1860; 18-2-1860; 21-2-1860; 25-21860; 3-3-1869; 5-3-1860; 13-4-1860; 14-4-1860; 4-6-1860; 23-6-1860; 5-7-1860; 6-12-1860.
22-1-1861; 20-2-1861; 22-3-1861; 26-3-1861; 20-4-1861; 6-5-1861; 14-5-1861; 13-7-1861; 17-7-1861; 14-9-1861; 22-10-1861; 30-1-1862; 24-5-1862; 11-7-1862.
एच. एफ. एम. के खण्ड 1, पृष्ठ 468-474 मुम्बई जिला गजटियरष :
खण्ड 15, कन्नड़ 2 भाग
खण्ड 21 बेलगाम
जैकब, पश्चिम भारत पृष्ठ 200, 218-235 कामथ, इतिहास दर्शन, खण्ड 4, 1859 पृष्ठ 138-141. शिरोडकर उत्तरी कन्नड में सिद्धि बस्तियाँ का बंद पृष्ठ 1-18.

24 हलगली (मुघोल राज्य कर्नाटक) में निशस्त्रीकरण के विरोध में विद्रोह

15-30 नवंबर 185
1857 : 11 सितम्बर, ब्रिटिश सरकार ने निशस्त्रीकरण विधि पारित की।
1857 : 27 नवंबर, हलगली के लोगों का ब्रिटिश फ़ौजों से संघर्ष।
1857 : 29 नवंबर, हलगली के लोगों और ब्रिटिश सेना में युद्ध।

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ब्रिटिश सरकार ने 11, सितम्बर 1857 को निशस्त्रीकरण विधि को पास किया और तुरंत बेलगाम ज़िले में उसका अनुपालन प्रारंभ कर दिया। तत्पश्चात् अक्टूबर माह में मुढ़ोल राज्य में ब्रितानियों ने जनता को निशस्त्र किए जाने के आदेश दिए और 10 नवंबर से राज्य के कुछ गाँवों में इसके अनुपालन का कार्य शुरू कर दिया।

इन आदेशों का अनेक स्थानों पर विरोध हुआ। परंतु निशस्त्रीकरण विधि का सशस्त्र विरोध हलगली के व्यक्तियों ने किया, इनके नेता बाबाजी निम्बालकर ने इनको विरोध करने के लिए संगठित किया था। उस गाँव के अधिकांशतः व्यक्ति बेदर (एक लड़ाकू जाति) थे। इनकी मुख्य आजीविका शिकार और सिपहसालारी थी।

शोरापुर राज्य के प्रमुख इसी जाति के थे और हलगली के व्यक्ति जानते थे कि, वह कुछ और प्रमुखों, देसाइयों और जागीदारों के साथ मिलकर अपने क्षेत्र से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने की योजना बना रहे है। जिस तरह स्वतंत्रता संघर्ष की प्रगति की सूचनाएँ देश के कोने-कोने में पहुँच रही थी उसी तरह हलगली की भी ख़बरें दूर-दूर तक पहुँची। ऐसे समाचारों ने शस्त्र प्रतिरोध के अनुकूल वातावरण उत्पन्न कर दिए।

नवंबर 1857 को मुघोल राज्य के अधिकारियों ने हलगली के व्यक्तियों से कहा कि वे अपने अस्त्र पंजीकृत करवाए। इस उद्देश्य से 15 नवंबर को, एक कर्मचारी मुधोल से हलगली भेजा गया। परंतु हलगली के व्यक्तियों ने कहा कि शस्त्रों का पँजीकरण उन्हें स्वीकार्य नहीं है। इसके पश्चात् गाँव के मारुति मंदिर में वे यह निश्चय करने के लिए मिले कि इस विजय में आगे क्या रणनीति बनाई जाए। 21 को हलगली के नेरप्पा नाइक को बुलाया गया, उन्होंने सूचित किया कि हलगली के व्यक्ति निशस्त्रीकरण आदेश को न मानने के लिए दृढ़ निश्चित हैं। इस पर 22 नवंबर 1857 कि रात को मुधोल के कुछ प्रतिनिधि, वहाँ के व्यक्तियों को हथियार जमा कराने के लिए फुसलाने गए। लेकिन वहाँ के नेताओं 'गुडग्या जमादार', 'सनदेत बाला' एवं अन्य ने उन्हें वापस लौटा दिया। हलगली से जब मुधोल के कर्मचारी लौट रहे थे तो उस समय कुछ पत्थरबाजी भी हुई। तुरंत आसपास के गाँवों मन्टूर, बोधानी और अलगुण्डी के लोग, जो निशस्त्रीकरण आदेश के विरुद्ध थे, हलगली में अपने साथियों की सहायता के लिए जमा हो गए।

सशस्त्र व्यक्तियों की एक टोली उस क्षेत्र के पहाड़ी क़िले, मालगढ में एकत्रित हो गयी और शेष लोगों ने गाँव के आस-पास सुरक्षा हेतु घेरा डाल दिया।

27 नवंबर की रात को, ब्रिटिश फ़ौज की 'बीजापुर घुड़सवार सेना' हलगली के फ़ाटक पर आ पहुँची। बागलकोट की ब्रिटिश फ़ौज के द्वारा इसे सुदृढ़ कर दिया गया। दुश्मन के लिए गाँव में घुसना बड़ा कठिन हो गया। इस प्रकार पदगट्टी की सुरक्षा चौकी के रक्षक भीमण्णा कालागढ़ी की ओर से आने वाले दुश्मनों से भिड़ें और उनके 7 आदमियों को उन्होंने मार डाला। उसे बाद ब्रिटिश सेना ने भीमण्णा को पकड़कर हलगली में मार दिया। वह केवल एक बाँह से लड़ें (कन्नड़ में इसे घ् मण्डगै ' कहते हैं) वह मण्डगै भीमण्णा कहलाए। इसी प्रकार रक्नत कावली की सुरक्षा चौकी पर भी भयानक मुठभेड़ हुई। 29 नवंबर की रात को लगभग डेढ बजे जब सभी और शांति प्रतीत हो रही थी, ब्रिटिश फ़ौज के 200 आदमी अचानक गाँव के सुरक्षा घेरे को भेदकर अन्दर घुस पड़े और अन्धाधुन्द गोलीबारी की। इस प्रकार रात्रि के अँधेरे में हलगली के आस-पास की ब्रिटिश फ़ौज और क्षेत्रीय लोगों के बीच युद्ध शुरू हो गया। हलगली के नेता शोरापुर के प्रमुख से सहायता की आशा लगाए थे परंतु दुर्भाग्यवश वह नहीं आ सके। एक भयानक युद्ध प्रारंभ हो गया। लेप्टीनेन्ट के अधीन ब्रिटिश फ़ौजों ने लोगों के घर जलाने शुरू कर दिए और अन्ततः हलगली गाँव पूरा जला दिया गया। इस प्रकार हलगली के सौ से अधिक लोग जलाकर मार डाले गए। लगभग साठ लोग व उनके नेता बाबाजी निम्बालकर युद्ध में मारे गए। लाल गढ़ का क़िला भूमिसात कर दिया गया।

कन्नड़ का एक समकालीन वीरगाथा गीत जो आज भी लोकप्रिय है उसमें हलगली का ऐसा वर्णन मिलता है।

"क्या गौरवशाली गाँव था,
लुटेरों के क्रोध का शिकार हुआ,
ज़मीन पर एक भी घर नहीं बचा,
चारों तरफ़ सैकड़ों में स" (आठवाँ पद)

जिन युद्ध बंदियों को मुधोल ले ज़ाया गया था उनकी संख्या लगभग 290 थी। उनमें से 19 पर फ़ौजी अदालत में अभियोग चलाया गया और बाद में मृत्युदंड दे दिया गया। ये विद्रोह के मुख्य कर्त्ता और प्रतिनिधि के रूप में छाँटे गये थे। इन्हें 11 दिसम्बर 1857 को बहुत बड़े जन समूह के सामने फाँसी पर लटका दिया गया था। दूसरे छह आदमियों को वापस हलगली ले जाकर सोमवार, 14 दिसम्बर 1857 को खुले मैदान में तोप से उड़ा दिया गया। कुछ प्रमुख नेताओं ने हलगली से बचकर शोरापुर में शरण ली। कित्तूर परिवार के लोग जिन पर हलगली के लोगों को भड़काने का संदेह किया गया था, उन्हें भी ब्रितानियों ने दंडित किया।

2. प्रमुख नेता
बाबाजी, पुत्र सोवाजी निंबालकर जी (यह ब्रितानियों के विरुद्ध युद्ध के लिए हलगली के लोगों को संगठित करने वालों में प्रमुख थे- यह 30 नवंबर 1857 के युद्ध में मारे गए।) 

गुडग्या जमादार-
(इन्होंने 22 नवंबर 1857 को हलगली के व्यक्तियों का नेतृत्व, मुधोल राज्य के प्रतिनिधियों को वापस लौटाने के लिए किया था)

संदेह वाला-
(गुडग्या जमादार के साथ इन्होंने 22 नवंबर को मुधोल राज्य के प्रतिनिधियों को वापस लौटाने के लिए हलगली के लोगों का नेतृत्व किया था।)

3. अन्य महत्वपूर्ण नेता
शोरापुर राज्य के प्रमुख
नेरप्पा नाईक पूजारी हनमा
जदगप्पा जदगनावर
(इन्होंने डब्ल्यू. एच. हैवलाक को युद्ध में मारा था।)
रामा
(दुश्मन की घुड़सवार सेना के तीन आदमियों को इन्होंने युद्ध में मारा था।)
कित्तूर के देसाई कुटुंब

 

कित्तूर सोवाजी निंबालकर
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

पुजारी हनमा
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

जदगप्पा जदगन्नावर
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

दयामव्वा (एक महिला)
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

दादन्ना
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

बालघा
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

माडर दयामव्वा
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

रामा
30 नवम्बर 1858 के युद्ध में मारे गए।

मीमण्णा मण्डगै (कवलगर-चौकीदार, 14 नवम्बर 1857 को हलगली में तोप से उड़ा दिए गए।)
100 आदमी- 29-30 नवम्बर की रात को जिन्दा जला दिये गये।
60 आदमी- 30 नवम्बर 1857 को हलगली के युद्ध में मारे गए।
13 आदमी- 11 नवम्बर 1857 को मुधोल में फाँसी देकर मारे गए।
6 आदमी- 14 नवम्बर को हलगली में तोप से उड़ा दिए गए।

5 बंदी
हलगली के युद्ध के बाद 290 व्यक्तियों को पकड़ा गया और बंदी बना लिया गया।

समुद्रपार निष्कासित:
29-30 नवम्बर 1857 को धारावाड़ के आयुक्त एफ. शिनेदर के द्वारा दो व्यक्तियों पर हलगली में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह का आरोप लगाया गया तथा 18 सितम्बर 1858 को उनकी सजाए घोषित की गई और 14 वर्ष के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया।

1. माल्या पुत्र-मजैया, आयु 50, बेदर शेत सनदी हलगली।
2. माल्या, पुत्र यलधा मुचकुम्नर, आयु 25, बेदर, शेतसदी, हलगली। 

6. स्त्रोत
मुम्बई पुरालेख अभिलेखागार पी. डी. खण्ड
1857 : खण्ड 24 पृष्ठ 257-295
1858 : खण्ड 36 पृष्ठ 161-170
खण्ड 36 पृ. 161-170
खण्ड 37 पृ. 51-61
खण्ड 37 पृ. 51-61
एच. एफ. एम. के खण्ड प्रथम, पृष्ठ 526-531, बोम्बे टाइम्स दिनांक 15-1-1859 कन्नड दिनांक
"संयुक्त कर्नाटक(हुबली) 15-8-1957 शताब्दी अंक
"प्रथम स्वातंत्रय संग्राम रंगराव दिवाकर "स्वातन्त्रय युद्ध 1857
एम. आर. कन्टक "द इन्सरक्शन एट हलगली 1857
(इण्डियन हिस्ट्री काँग्रेस 53- वारंगल- 28-30 सितम्बर 1992-अप्रकाशित पत्र)
हलगली में व्यक्तिगत रूप से एकत्रित विवरण।
रंगराव दिवाकर "स्वातंत्रय युद्ध 1857
एम. आर. कण्टक, "द इनसरेक्शन एट हलगली 1857 में, (इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस 53, वारंगल 28-30 सितम्बर 1992, अप्रकाशित पत्र।)
व्यक्तिगत रूप से हलगली का एकत्रित किया गया विवरण।

भाल्की में 1857 का पश्च प्रभाव

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जनवरी-अपैल 1867
1867 : सातारा के छत्रपतिशाहू के भान्जे रामाराव के द्वारा सैन्यबल का एकत्रीकरण, स्वतन्त्रता की घोषणा और ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध युद्ध छेडना।
मई, रामाराव और उसके सहयोगियों और उन्हें अपराधी घोषित किया जाना।

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राम राव उर्फ जंग बहादुर, जो कि सातारा के छत्रपति शाह के भान्जे थे, और ऐसा समझा जाता था कि 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान उन्हें तात्या टोपे ने उत्तरी भातर सेे दक्षिण को भेजा था। 1859 में वह गिरफ्तार हुए और बाद में छोड़ दिए गए। आठ वर्ष के बाद 1867 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार और निजाम सरकार के विरूद्ध संघर्ष के लिए  बीदर जिले के लिए भन्ली गाँव के आस-पास के क्षेत्र से सैकड़ों अनुयायी एकत्रित कर लिए। विभिन्न स्त्रोतों से, हुण्डियों (भुगतान के बिलों) के माध्यम से उन्होंने एक लाख रूपये अपने इस कार्य हेतु जमा किए। उन्होंने बहुत से लोगों को कौलनामे (अनुबन्ध पत्र) जारी किए। बीदर जिले की अष्ठी गढ़ी (छोटा दुर्ग) पर उन्होंने अपने साथियों के साथ हमला करके कब्जा कर लिया और स्वतन्त्रता की घोषणा के प्रतीक के रूप में वहाँ भगवाध्वज फहरा दिया। ब्रिटिश और निजाम शासन के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करके उन्होंने औसा, उदगिर, नालदुर्ग और थाना राजुरा की गढ़ैय्यों को अधिकार में लेने के आदेश जारी किए। उसके सरकारी पत्रों पर जो सील होती थी उसमें "छत्रपती" अंकित रहता था। उन्होंने घोषित किया कि वह सातारा के छत्रपति की गद्दी को पुनः प्रतिष्ठित कर रहे है। राम राव के जारी किए गए कौलनामे इस प्रकार थे (अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद) "दिल्ली सरकार के अधीन सतारा के श्रीमन्त शाह छत्रपति की मुद्रायुक्त शपथ-पत्र को भल्की के भीमराव बहादुर को 1276 फसली में प्रेषित किया गया:

"मेरे पूर्वजों को इस देश पर सुदीर्घ-काल तक शासन करने का गौरव प्राप्त था। ब्रितानियों ने उस गद्दी को हड़प लिया है। अब उसे फिर से प्राप्त करना है और ब्रितानियोंे को समाप्त कर देना है। यह मेरा दृढ़ निश्चय है और इसके लिए मैं सेवकों की भर्ती कर रहा हूँ। कुलीन घरानों के व्यक्ति भी सूचीबद्ध किए जायेंगे। प्रत्येक जमादार को चालीस रूपये सिपाही को 30 रूपये और सवार को दस रूपये मासिक वेतन मिलेगा। यह घोषणा पत्र यथोचित रूप से हस्ताक्षरित है। ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है। दिनांक 25 शाबान 1286 हिजरी" (एफ. एस. एच. खण्ड 2 पृ. 225-229, कुछ मौखिक परिवर्तन के साथ)

अप्रैल 1867 के आस-पास राम राव और उनके अनेक सहयोगी गिरफ्तार कर लिए गए। ब्रिटिश प्रतिनिधि के निर्देशन में, निजाम की फौजदारी अदालत, हैदराबाद में "दोनों हकूमतों (अर्थात् अंग्रेज और निजाम की) के विरूद्ध लोगों को भड़काने" के आरोप में अभियोग चला। जो सजाएँ दी जानी थी उन्हें पहले ब्रिटिश प्रतिनिधि को पुष्टीकरण हेतु भेजा गया। प्रतिनिधि ने मत प्रकट किया कि कौलनामों के पत्र "विद्रोही और उत्तेजनात्मक रूप में स्पष्ट यूरोपवासियों की हत्या के लिए उकसाने हेतु तैयार किये गए थे- यदि ये पत्र सशस्त्र दक्षिणी लोगों में महान संकट के आधारित हो जाते तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती" (हैदराबाद अफयर्स, खण्ड 5 पृष्ठ 818-189)

रामराव और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी के कारण अन्ततः यह महान प्रयास असफल हो गया और सहस्त्रों व्यक्ति जिन्हें नियुक्ति पत्र प्राप्त हुए थे अपने-अपने स्थान पर चुपचाप बने रहे। (देखें स्रोत इस प्रकार के व्यक्तियों की सूची के बारे में सूचना आदि के लिए।) प्रमुख नेता
रामराव उर्फ जंग बहादुर-
इनका नाम माधवराव था परन्तु इन्होंने अपने आपको राम राव पुत्र जगदेव राव के नाम से प्रसिद्ध किया और कहा कि वह सातारा के छत्रपति शाहू के भान्जे है; (मरहठा, आयु 30 वर्ष, निवासी सातारा, आजीविका- "निरवारी; इन्हे तिरफली गाँव में गिरफ्तार किया गया और अपराधी घोषित करके मई 1867 में आजीवन देश निष्कासन की सजा दी गई।")

अन्य विशेष व्यक्ति
भीमराव- मरहठा, किसान, आयु 50 वर्ष निवासी भल्की ग्राम। इनके पास धन संग्रह का दायित्व था। आजीवन देश निष्कासन की सजा।
यशवन्त नायकवाड़ी- मरहठा, किसान आयु 35 वर्ष निवासी भल्की गाँव। यह पत्र ले जाया करते थे और सहयोगी जमा करते थे।
जहाँगीर अली- आयु 30 वर्ष, राम राव की नौकरी में थे।
वीरभद्रय्या- पुत्र राम शेट्टी, बनिया, आयु 21 वर्ष।
बालकृष्ण- पुत्र बंकट राव ब्राह्मण, आयु 30 वर्ष बल्की ग्राम के पटवारी।
विठोबा- पुत्र कोण्डाजी, मरहठा, निवासी निलंगा ताल्लुक।

बन्दी
निजाम फौजदारी अदालत का 12वीं मुहर्रम 1284 हिजरा (मई 1867) को सुनाया गया फैसला :
आजीवन कारावास और समुद्रपार निष्कासन (4)
रामराव उर्फ जंग बहादुर
भीमराव
बाल किशन
विठौबा
14 वर्ष सश्रम कारावास (2)
यशवन्त राव नाइकवाड़ी
जहाँगीर अली
(वीर भद्रय्या बरी कर दिए गए)

स्त्रोत
आँध्र प्रदेश राज्य पुरालेख्, अभिलेखागार हैदराबाद स्वतन्त्रता संघर्ष की पत्रावलियाँ
इण्डिन डेलीन्यूज, 30-08-1867
टेम्पल, जर्नल्स, पृ. 126-127
हैदराबाद अफेयर्स, खण्ड 5 पृ. 818-819
एफ. एस. एच. खण्ड 2 पृ. 228-248
एफ. एस. एच. खण्ड 2 पृ. 246-248

जंग बहादुर के उन सहयोगियों के नाम जिनकी सूचियाँ विठोबा पाटिल ने 24वीं जिलकनद 1272 हिजर को प्रस्तुत की थी : (1) जिन्हें विठोबा की उपस्थित मे कौलनामा दिया गया (48); (2) वे जिन्हें गोसाई ने कौलनाम दिया (26); (3) वे जो अष्टी की गढ़ी गये थे (10); (4) वे जिन्हें मुख्य गोसाई ने कौलनामा दिया (14); और कुल 98 (यहाँ उन्हें उद्धृत नहीं किया जा रहा है)

नरगुन्द का युद

29 मई-2 जून, 1858
1858 : 29 मई, राजनीतिक प्रतिनिधि मेनसन का सुरेबान में सिर काट लिया गया, नरगुन्द के मुखिया उनके सिर को लेकर सुरेबान से नरगुन्द वापस आये।
1-2 जून, नरगुन्द के दुर्ग पर युद्ध, बाबा साहब बच निकले।
3 जून, नरगुन्द का राज्य ब्रिटिश शासन में सम्मिलित। 12 जून, बाबा साहब को बेलगाम में सरेआम फाँसी।

भास्करराव उर्फ बाबासाहब भावे, घारवाड़ जिले में नरगुन्द राज्य के प्रमुख, डम्बल के भीमराव मुण्डर्गी वेंकटप्पा नाईक, शोरापुर के राजा और अन्य सभी उत्तरी कर्नाटक और सीमा पर लगी निजाम की रियासत से ब्रितानिया की सत्ता को उखाड़ फेंकने की योजना में एक पक्ष में थे। इस उद्देश्य से बाबा साहब भावे ने कई राज्यों के प्रमुखों, क्षेत्र के देसाइयों और जागीरदारों से सम्पर्क स्थापित कर लिये थे। वर्ष 1858 के प्रारम्भ के आस-पास ब्रितानियों के द्वारा सर्वसाधारण को निशस्त्र किये जाने के कारण उस क्षेत्र में बड़ा क्षोभ व्याप्त था। निशस्त्रीकरण अभियान के कारण जनता में फैली बेचैनी के विषय में धारवाड़ के मजिस्ट्रेट के पत्र व्यवहार को बेलारी के मजिस्ट्रेट ने मद्रास भेजा (मद्रास, राजनैतिक गतिविधि- 9 फरवरी, 1858)।

इन परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश शासन ने पड़ोस के नवलगुन्द ताल्लुका के मामलातदार को हिदायत दी थी कि नरगुन्द के प्रमुख की गतिविधियों पर निगरानी रखी जाए। 28 मई, 1858 को मामलतादार ने रपट प्रेषित की ऐसी आशंका है कि नरगुन्द में भी वैसी ही विद्रोह हो जाएगा जैसा कि हुम्मल (अर्थात् उम्मल) में हुआ है। "भीमराव मुण्डर्गी दो दिनों में आने वाले है और सूरपुर से सहायता आने वाली है।" (कलेक्टर धारवाड़ के कार्यालय के अभिलेख, एच. एफ. एम. के खण्ड प्रथम, पृष्ठ 261-264)

 

नरगुन्द एक शक्तिशाली गढ़ था। वहाँ के प्रमुख युद्ध की योजना के अन्तर्गत पुरूष और युद्ध सामग्री जुटा रहे थे। दूसरी और ब्रिटिश सरकार, 1858 के प्रारम्भिक महीनों में उत्तरी कर्नाटक के सम्भावित विद्रोह के विरूद्ध सतर्कता से कदम उठा रही थी। अतएव निशस्त्रीकरण अभियान के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार द्वारा नरगुन्द के प्रमुख को निर्देश दिये गए कि राज्य में उपलब्ध समस्त बड़ी तोपें और बारूद को धारवाड़ भेज दिया जाय। इस प्रकार नरगुन्द की बड़ी तोपों और बारूद तथा शोरे के भण्डार 7 मई, 1858को धारवाड़ पहुंच गए।

नरगुन्द के प्रमुख के निर्देशानुसार कुछ तोपें जो धारवाड़ ले जाई जा रही थीं नरगुन्द में तीन मील दूरस्थ जागापुर पर रूकीं और फिर वापस नरगुन्द वापस भेज दी गई। ब्रिटिश सरकार द्वारा उसके शस्त्र कुर्क कर लिये जाने से बाबा साहब और नरगुन्द की जनता में बड़ा क्षोभ था। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासन ने इसी समय उन्हेंे पुत्र गोद लेने की अनुमति देने से भी मन कर दिया था।

डम्बल क्षेत्र में भीमराव मुण्दर्गी की सशस्त्र कार्यवाही (24 मई, 1858) की जानकारी तुरन्त पहुँच गई। नरगुन्द के प्रमुख ने इस पर जितनी भी तोपें उपलब्ध थी किले के मोर्चों पर लगा दीं ताकि किसी भी सम्भावना से निपटा जा सके।

26 मई, 1858 को मैनसन, ब्रिटिश राजनीतिक प्रतिनिधि दक्षिण मराठा प्रदेश नरगुन्द की धमकी को प्रारम्भ में ही दबा देने के लिए कोल्हापुर से रवाना हुआ। ब्रिटिश पक्ष की सहायता सुनिश्चित करने के लिए पहले वह कुरून्दवाडा गया और फिर रामदुर्ग और वहाँ के प्रमुखों से सम्पर्क किया। रामदुर्ग में उसने उन पत्रों को देखा जो नरगुन्द के प्रमुख ने रामदुर्ग के प्रमुख को स्वतन्त्रता संग्राम में सहयोग देने के लिए लिखे थे। उन्होंने लिखा "अपमान से मृत्यु अधिक श्रेयस्कर है।" मैनसन रामदुर्ग से 29 मई को धारवाड़ के लिए रवाना हो गया, उसके साथ दक्षिण मराठा घुड़सवार दल था। उसे कर्नल मालकम से धारवाड़ में मिलना था। रास्ते में, उसी दिन मध्य रात्रि के समय वह सुखेन गाँव में ठहरा। इस बीच रामदुर्ग से लिखे गए मैनसन के पत्र से भड़क कर नरगुन्द के प्रमख रामदुर्ग की ओर चला पडे। उनके साथ 800 घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। यह खबर लगते ही कि मैन्सन और उनका दल सुरेबान में डेरा डाले हुए है, उन्होंने उस गाँव पर घेरा डाल दिया। तदुपरान्त जो मुठभेड़ हुई उसमें मैनसन, जो मारूति मन्दिर में छुपा हुआ था, पराजित कर दिया गया और विष्णु हिरेकोप ने उसका सिर काट लिया। बाबा साहब उसका सिर लेकर नरगुन्द वापस आए और उसे शहर के एक फाटक पर लटका दिया। इससे, आगे की घटनाओं को प्रेरणा मिली। यह समाचार अगले दिन 20 मई, 1858 को धारवाड़ पहुँचा जो नरगुन्द से केवल 30 मील दूर था। उसी दिन धारवाड़ से ब्रिटिश सेना भेज दी गई। रास्ते में ले. क. जी मालकाम की फौजें भी आ मिली। अमरगोल से चलकर वे 1 जून, 1858 की प्रातः नरगुन्द के दुर्ग के परकोटे के सामने पहुँच गए। यह जानने योग्य है कि उसी दिन कोपल में भीमराव मुण्दर्गी ब्रितानियों से भयानक युद्ध में उलझे हुए थे। अन्ततः ब्रितानियों ने 2 जून, 1858 को नरगुन्द के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। लगभग 60 व्यक्ति राष्ट्रभक्तों के पक्ष के नरगुन्द के युद्ध में मारे गए। फील्ड फौर्स के कमान्डिंग लेफिटनेन्ट कर्नल मालकोम ने, सहायक एडजुटेन्ट जनरल, दक्षिणी जिवीजन को, अपनी नरगुन्द से 7 जून, 1858 को लिखी गई रिपोर्ट में लिखा "मेरे अधिकार की सेना ने नरगुन्द और अमरगोष्ठ के मध्य स्थित मैदान में दुश्मन को पराजित कर दिया, नरगुन्द के पेठ पर आक्रमण करके अधिकार कर लिया और अगले दिन 2 जून को सुबह 9 बजे नरगुन्द के दुर्ग को जीत कर उस पर अधिकार कर लिया। उनकी क्षति 60 मृत और अनेक घायलों से कम नहीं हुई।" (मुंबई राजनीतिक विभाग खण्ड 30 वर्ष 1858 पृ. 282-297)

3 जून, 1858 को यह घोषणा की गई कि नरगुन्द का राज्य ब्रिटिश शासन में सम्मिलित कर लिया गया है। नरगुन्द के युद्ध में मारे गए 60 व्यक्तियों के अतिरिक्त नरगुन्द के प्रमुख सहित 30 से अधिक प्रभावशाली व्यक्ति अभियोग चलाने के पश्चात् मार दिये गये और लगभग 100 व्यक्तियों को आजन्म समुद्रपार निष्कासन सहित विभिन्न अवधियों की सजाएँ दी गई। नरगुन्द और कोप्पल में विजित लगभग 100 सशस्त्र विद्रोही कोर्ट मार्शल के आदेश से गोली से उड़ा दिये गए। धारवाड़ के न्यायाधीश की अदालत के अनेक वकील और नाजिर (रजिस्ट्रार) धारवाड़ न्यायलय पर स्वातन्त्र्य संग्राम का पक्ष लेने का संदेह किया गया। कोल्हापुर के आयुक्त कर्नल जेकब ने, 7 जुलाई, 1868 को पकड़वाने के लिए पारितोषिक की घोषणा की।
पारितोषिककीराशि नाम


रू. 200

विष्णू कृष्ण कुलकर्णी

रू. 200

रामराव बलवन्त पेंठे

रू. 150

गुरूराव श्रीनिवास

रू. 100

व्यंकप्पा सिद्दप्पा सवनिस

रू. 50

गोपाल रामचंद्र गिडे

रू. 30

गोविन्द नरसो हजूरिया

रू. 30

राघोजी शिवप्पा

"इनमें पहला व्यक्ति मैनसन की हत्या से विशेषतः सम्बद्ध है" --जैकब, कोल्हापुर, 7 जुलाई, 1858 (बम्बई राजनीतिक विभाग, खण्ड 32 वर्ष 1858 पृष्ठ 211)

नरगुन्द के विद्रोह से सम्बन्धित तत्कालीन कन्नड़ युद्ध गीत आज भी उस क्षेत्र में गाए जाते हैं। जैसा कि पहले कहा गया है बड़ी संख्या में स्वतन्त्रता सेनानी इस आरोप में ब्रिटिश सरकार द्वारा अपराधी घोषित किए गए और उनको सजा दी गई कि "उन्होंने ब्रिटिश राज्य के विरूद्ध नरगुन्द के प्रमुख के साथ मिलकर युद्ध किया, जो खुले आम ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह कर रहा था।"

ले. कर्नल मालकाम ने वर्ष 1857 के अन्तर्गत नियुक्त आयुक्त की हैसियत से "14 विद्रोहियों" पर 9 जून, 1858 को नरगुन्द में अभियोग चलाया। आरोपी "अपराधी" पाये गए और उनको बन्दूकधारी सेना के द्वारा गोली से मार दिये जाने की सजा दी गई। 10 जून 1858 को नरगुन्द पेठ के सामने वाले मैदान में दण्ड प्रक्रिया को कार्यान्वित किया गया।

10 जून, 1858 को 5 बजे शाम को नरगुन्द के पेठ के सामने वाले मैदान में बन्दूकधारी सेना के द्वारा गोली से मारे गए :
लक्ष्मण जर्नादन,
इमाम इस्माइल पुत्र जमाल,
रामा पुत्र तेल्ला
बापू पुत्र तेल्ला
पिरजी पुत्र हरि
तुकाराम पुत्र महीपति,
खण्डू पुत्र व्यंकट,
राघोबा पुत्र लक्ष्मण,
गुड्डु पुत्र हैसेन,
फकीर मोहम्मद,
फारस खाँ पुत्र मूविक खाँ,
बसप्पा पुत्र दुमप्पा,
सुबराव ज्योतिबा और
बाला पुत्र येलगुण्डा।

शिनप्पा देसाई, जो डम्बल और सुरतुर के देसाई थे, का मुकदमा ले. क. मेलकम के न्यायालय में, नरगुन्द में, 9 से 12 जून, 1858 तक चला।
आरोप
नरगुन्द के प्रमुख के ब्रिटिश सरकार विरोधी खुले विद्रोह में इन्होंने उनका साथ दिया। भीमराव मुण्डर्गी नरगुन्द प्रमुख एवं अन्य के साथ छह महीनों में विद्रोह का षड्यन्त्र रचा।उन्होंने यह सूचना सरकारी अधिकारियों से छिपा कर रखी।

सजा
डम्बल ओर सुरतूर के शिनप्पा देसाई को इसी अपराध में तोप से उड़ा कर मार दिया जाय(   ् 12 जून, 1858 को 5 बजे)
ले. क. कालकाम ने 12 जून, 1858 को नरगुन्द में न्यायालय स्थापन्न हुआ। सात व्यक्तियों पर आरोप लगाया गया किया गया कि 24 मई और 2 जून को उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया।

सजाएँ
12 जून, 1858 को बन्दूकधारी सेना के द्वारा निम्न को नरगुन्द में गोली से मार दी जाय-
मल्लप्पा पुत्र बालप्पा निवासी इदगल
गोविन्द पुत्र सुलताना धनगर, नरगुन्द
बासप्पा शिन्दगी, धनगर, नरगुन्द
रहमान खाँ पुत्र रहीम साहेब, नरगुन्द
मोहिदउद्दीन पुत्र काला, नरगुन्द

दो दर्जन बेंत लगाने की सजा
तिम्मा पुत्र रंगा, वेदर, नरगुन्द
गेम्मा पुत्र सुलतान, नरगुन्द का

बन्दी भास्कर राव बाला साहब नरगुन्द के पूर्व प्रमुख एवं अन्य पाँच व्यक्तियों के विरूद्ध बेलगाम किले में चलाए गये अभियोग की कार्यवाही (भास्कर राव बिन दादाजी भावे, आयु 52 जाति ब्राह्मण) और अन्य पाँच। कैप्टन एफ, शनीदरदर के समक्ष फौजदारी न्यायालय लगा। उन्हेंे एक्ट 14 के भाग सप्तम, वर्ष 1857 के अन्तर्गत कार्यवाहक राजनीतिक प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था।

मुख्य आरोप
ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह और युद्ध।
सी. जे. मेनसन, कार्यवाहक राजनीतिक प्रतिनिधि और पूरन सिंह रिसालदार दक्षिणी घुड़सवार सेना, कार्यवाहक राजनीतिक प्रतिनिधि के साथ चलने वाली सुरक्षा दल (के सैनिक) को सुरेबान में शनिवार दिनाँक 29 मई, 1858 की रात को हत्या। भास्कर राव के बयान 9 को और उसका पुष्टीकरण 10 जून, 1858 को किया गया। अन्त में उन्होंने बयान दिया कि मैं "दोषी" हूँ।

सजा  ".......तुम बन्दी भास्कर राव दादाजी उर्फ बाबा साहेब, नरगुन्द के भूतपूर्व प्रमुख, को गर्दन में फाँसी लगा कर मृत्यु होने तक लटकाया जाय और इसके अतिरिक्त तुम्हारी प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार के नाम जब्त कर दी जाय" एफ. श्नीदर, आयुक्त, बेलगाम, 11 जून, 1858
बाबा साहब भावे को दिये गए दण्ड को 12 जून, 1858 को बेलगाम की हेस्टेल हिल पर सायं कार्यन्वित किया गया।
गोविन्द नारायण उर्फ परचुरे (जून 1858 के अन्तिम सप्ताह में कारवाड़ में फाँसी दी गई।)
गंगाधर चिंतामण उर्फ अण्णा परचुरे (जून 1858 के अन्तिम सप्ताह में धारवाड़ में फाँसी दी गई।)
बसप्पा पुत्र बालप्पा ताम्बे (यथोपरोक्त)
काशीराव पुत्र नेमाली नलवडे (यथोपरोक्त)
हनुमन्ता पुत्र मरितम्मा (यथोपरोक्त)
विष्णु पुत्र कृष्णा कुलकर्णी निवासी हिरेकोप (उस समय बच निकला परन्तु पकड़ा गया और फाँसी दी गई 1860)

ले. क. मालकाम के द्वारा नरगुन्द में 15 जून, 1858 को लगाए गये न्यायालय की कार्यवाही- राघोबा लिमये के मामले में आरोप थे ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध नरगुन्द के प्रमुख के खुले एवं सक्रिय विद्रोह में उनका साथ देना और मि. मैनसन की हत्या के समय किसी सैन्य दल में उनकी उपस्थिति। 15 जून को उसे दी गई सजा इस प्रकार थी- "मृत्यु होने तक गले में फाँसी लगाकर लटकाया जाय ।" (सजा) अगली सुबह 16 जून को छह बजे नरगुन्द के पेठ के सामने वाले मैदान में दण्ड का कार्यान्वन तदनुसार किया गया।

बन्दूकधारी सेना के द्वारा गोली से मार देने के लिए
बसप्पा पुत्र लिंगप्पा
बापू नरगुन्द के शेतसनदी के
लिंगा पुत्र लक्षमप्पा शेसनदी-नरगुन्द के
(यें तीनों 18 जून 1858 को नरगुन्द के पेठ के सामने वाले मैदान में बन्दूकधारी सेना द्वारा गोली से उड़ा दिये गए।)

समुद्रपार निष्कासन-आजीवन
चिमणजी यादव शेनादी, नरगुन्द किला,
नरसिंह भाने शेत्सनादी नरगुन्द किला,
नसरिंस पुत्र शिवप्पा, शेतसनदी नरगुन्द किला,
फकीर पुत्र लिगप्पा गाँव का शेतसनदी,
व्यंवर पुत्र शकरप्पा, शेतसनदी,
हटेला पुत्र हैसेन, शेतसनदी,
अब्दुला पुत्र मोहिउद्दीन, शेसतनदी,
8. राजा पुत्र मीरा, शेतसनदी,
फकरू नरगुन्द का तहसीलदार,
नरस पुत्र लिंगा, नरगुन्द का शेतसनदी,
तुकाराम पुत्र कृष्णा जी, शेतसनदी नरगुन्द।

दो दर्जन बेंत लगाने की सजा-
पामा पुजारी (अतिरिक्त आरोप यह भी था कि उन्होंने नरगुन्द के प्रमुख को यह प्रदर्शित किया कि देवी ने घोषित किया है कि प्रमुख ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध युद्ध करके सफलता प्राप्त करेंगे।)

आगे जाँच के लिए निरूद्ध-
गौरप्पा पुत्र शकरप्पा, किंकपीकोष शेतसनदी "मुतनाल के पटेल से यह पुष्टिकरण लिया जाय कि उसका यह बयान क्या सच है कि यह किंकिकोप का था और गलती से उसे नरगुन्द का समझकर गिरफ्तार किया गया।" (बाद में 22 जून, 1858 को उसे आजन्म निष्कासन की सजा हुई।)

ले. क. मालकाम के द्वारा नरगुन्द में 22 जून, 1858 को लगाए गये न्यायालय में 15 अपराधियों की सुनावाईः आरोपः विद्रोह आदि सजाएँ 22 जून, 1858 को दी गई।

24 जून, 1858 को प्रातः नरगुन्द के पेठ के सामने वाले मैदान में फाँसी दी जाय।
शंकरप्पा कलस और मढ़ाती देसाई
व्येकप्पा नरगुन्द के शेतसनदियों का देसाई
अर्जन नरगुन्द का शिलेदार
रघु पुत्रमुरारबा नरगुन्द का शिलेदार

समुद्रपार आजन्म निष्कासन
गोरप्पा किन्ककोप के शेतसनदी
परसुआ पुत्र मालप्पा, नरगुन्द के
व्यंका पवार, नरगुन्द के शिलेदार
सुलतान प्यारस, नरगुन्द के सिपाही
गलिया पुत्र मुदेमिया नरगुन्द के शेतसनदी
फारस खाँ पुत्र इमाम नरगुन्द के सिपाही
अयुप्पा हिदुल्ला, शिरोलि के शेतसनदी

दो दर्जन बेंत लगाने की सजा-
मुदकप्पा पुत्र जेकण्णा (अति वृद्ध होने के कारण इन्हें 24 बेंत लागए जायें)

अगली जाँच के लिए निरूद्ध-
हणमा, अनोबा का पुत्र, मुगनुर का
डोंडू, हनम्भा का पुत्र हलमप्पा, मुगनूर का
सांगा, मुरिखमन्या तलवार का पुत्र, मुगनरू का

ले. क. मालकाम के द्वारा 19 जून, 1858 को नरगुन्द में लगाए गए अदालत में भीकाजी पन्त गणेश गोखले के मामले की कार्यवाही- आरोप-
(1) विद्रोह भड़काने और उसमें सहायता करने
(2) मेनसन की हत्या में भाग लेने का। दूसरे आरोप उनके विरूद्ध पूरी तरह सिद्ध नहीं हो सके। 23, जून 1858 को सजा सुनाई गई :

समुद्र पार आजीवन निष्कासन (भीकाजी पन्त गाखले बाद में अण्डमान में मर गये।)
ले. क. मालकाम के द्वारा, नरगुन्द में, 26 जून, 1858 को 22 आरोपियों के विरूद्ध विद्रोह आदि के आरोपों की अदालती कार्यवाही। सजाएँ 28 जून 1858 को सुनाई गई :
मृत्यु दण्ड 5 को (बाद में घटाकर निष्कासन)

(अ) फाँसी (गर्दन से लटकाकर)
तिमप्पा (उर्फ रंगप्पा) मजूमदार
(पुत्र जयप्पा मजूमदार) नरगुन्द शहर के कारकून के)

(ब) बन्दूकधारी सेना के द्वारा गोली से मार देना-
काल्लप्पा, हुलेगप्पा के पुत्र, शिरोल के
हनुमन्त घाटगे, नरगुन्द के शेतसनदी
व्यंकटराव भोंसले नरगुन्द के शिलेदार
तम्मण्णा, लक्ष्मण के पुत्र, शेतसनादियों के नायक

उपरोक्त (ए) और (बी) प्रारम्भ में मृत्यु दण्ड दिया गया था। बाद में मुंबई प्रशासन के निर्देश पर, जो कर्नल जैकब के माध्यम से प्राप्त हुआ, मृत्यु दण्ड को घटाकर समुद्रपार आजीवन निष्कासन में परिवर्तन कर दिया गया। (ले. कर्नल मालकाम, आयुक्त कलादगी का कथन दिनाँक 3 जुलाई, 1858)

बुदन्या, पीर साहब के पुत्र, सोमापुर के
भीमा, सोमापुर के चौकीदार
बाला, सोमापुर के सफाई मजदूर
भीमा, रूद्रप्पा के पुत्र, संगतल के शिलेदार
राजा, व्यंकट के पुत्र, नरगुन्द के शेतसनदी
लिंगप्पा, शंकरप्पा का पुत्र, नरगुन्द का शेतसनदी
शिवण्णा, संगरप्पा पुत्र, नरगुन्द के शेतसनदी
गंगाराम, येरप्पा के पुत्र, नरगुन्द के शेतसनदी

चौदह वर्ष का सश्रम कारावास-
निलप्पा पुत्र भीमप्पा, नरगुन्द के शेतसनदी
भीमा पुत्र तिम्मपाप, बेलवन्की के
सात वर्ष का सश्रम कारावास-
रामा पुत्र सिद्ध नाइक, सिद्धपुर के
राजा पुत्र जुलफकीर, नरगुन्द के शेसतनदी
चौबीस बेतों की सजा-
फकीरा पुत्र यलप्पा, सोमापुर के कारकून
गौरय्या पुत्र यल्लप्पा जसेहाल सोमापुर के
पीराजी चव्हाण नरगुन्द के
"दोषी न पाये जाने के कारण मुक्त"
हुसैन खाँ पुत्र नौरास खाँ, नरगुन्द के
हनम्मा पुत्र तम्मा, नरगुन्द के शेलसनदी

ले. कर्नल मालकाम द्वारा कलादगी में 8 जुलाई, को 7 आरोपियों पर नरगुन्द के प्रमुख के आधीन ब्रिटिश सरकार के विद्रोह आदि करने के आरोप पर मुकद्दमे की कार्यवाही-
जुलाई, 1858 को सुनाई गई सजाएँ-

समुद्र पार आजीवन निष्कासन
बंड़ा मियाँ आयु 50, मुस्लिम, पुत्र अमीन साहब नरगुन्द के

सात वर्ष का सश्रम कारावास
खादर, आयु 55, मुस्लिम, सैय्यद वुद्दीन का पुत्र, नागुन्द
रामू देवजी भोंसले के पुत्र, आयु 50, नरगुन्द के मरहठा

दो वर्ष का सश्रम कारावास
नागा, आयु 55, नरगुन्द के मरिथन्ना के पुत्र
शेख गुडू, आयु 57, मुस्लिम, नरगुन्द के दारी साहब के पुत्र

चौबीस बेंत की सजा-
बालू, आयु 42, मरहठा, नरगुन्द के भीकाजी के पुत्र
पिरजी, आयु 75 वर्ष, मरहठा नरगुन्द के गेमजी के पुत्र

ले. कर्नल मालकाम के द्वारा नरगुन्द में 24 जून, 1858 को लगाए गए न्यायालय में दो आरोपियों के विरूद्ध चलाए गऐ अभियोग की कार्यवाही : आरोप :  विद्रोह आदि ।

25 जून, 1858 की सुनाई गई सजाएँ
(i) आजीवन समुद्रपार निष्कासन या 14 वर्ष : 1. कृष्णजी पन्त जोशी, नरगुन्द के मामलातदार
(ii) चौदह वर्षों का सश्रम कारावास :  कृष्णजी पन्त उर्फ बन्या बापू (ज्ञाने)
(iii) दो वर्षों का सश्रम कारावास और उसके पहले 24 बेंत लगाने की सजा :

अदालत ने पाया कि गवाह क्रमांक 4 नाम दयामा गौड पुत्र संजगी गौडा ने झूठा बयान दिया, वह जाँच के दौरान झूठी गवाही के दोषी सिद्ध हुए। उनको 24 बेंत लगाए जाएं और फिर 2 वर्षों के सश्रम कारावास के लिए भेज दिया जाय।

मालकाम द्वारा 19 जुलाई, 1858 तक घोषित अपराधियों की सूची में निम्नांकित नाम, उपरोक्त के अतिरिक्त पाए गए। (मुंबई पी. डी. खण्ड 33 वर्ष 1858 पृष्ठ 431-447)

 

आजीवन समुद्र पार निष्कासन
शेषागिरि राव, नाजिर
ले. कर्नल मालकाम के द्वारा कालादगी में 16 जुलाई, 1858 को लगाई गई अदालत में 9 आरोपी, जिन पर नरगुन्द के प्रमुख के अधीन विद्रोह करने आदि के आरोप थे उन पर अभियोग की कार्यवाही 16 अगस्त 1858 को सजाएँ सुनाई गई :

 

निष्कासन (बाद में घटाकर सश्रम कारावास उसी अवधि के लिए)
(ए) 14 वर्ष का निष्कासन :
दाऊ पुत्र शिदोबा, आयु 40, मरहठा, नरगुन्द के किलेदार।
(बी) 7 वर्षों का निष्कासन : 1. राघोबा पुत्र परशुराम, आयु 50, मरहठा, अरमगोल का शेतसनदी
लिंगप्पा, पुत्र परशुराम, आयु 40, मरहठा, अमरगोल के शेतसनदी
(ए) और (बी) मुंबई प्रशासन ने मत व्यक्त किया कि यद्यपि अल्पकाल के लिए निष्कासन विधि सम्भव है, परन्तु इसमें असुविधा हो सकती है, अतः इन तीन बन्दियों की सजाएँ उसी अवधियों के कारावास में बदल दी जाएँ। (मुंबई, गोपनीय विभाग संख्या 3085 वर्ष 1858 दिनाँक 18 अगस्त,1858)

दो वर्ष का सश्रम कारावास
औद पुत्र कृष्णाजी दलवाई, आयु 30, मरहठा, नरगुन्द के मन्दिर का सेवक
फकीरा पुत्र लिंगप्पा अलगौडा आयु 30 धनगर, शेतसनदी
दोषी न पाये जाने के कारण मुक्त
महादेव, पुत्र खाण्डोबा गुले आयु 60, मरहठा, हुज्जिया, नरगुन्द
मनकू पुत्र गनुबा काठे, आयु 40, मरहठा कुली, धारवाड़ जिल के दन्कोप का निवासी।
हनमुन्त पुत्र तन्तोबा घाटगे, आयु 35, मरहठा किसान, नरगुन्द
हुड़प्पा पुत्र तन्तोबा घाटगे, आयु 34, मरहठा महल का सेवक नरगुन्द।
कैप्टन श्नीदार के द्वारा, नरगुन्द में 21 अगस्त, 1858 को लगाई गई अदालत में 4 व्यक्तियों पर विद्रोेह आदि के आरोपों के विवरण में सुनवाई की कार्यवाही। सजाएँ 21 अगस्त 1858 को दी गई-।

4 वर्ष का सश्रम कारावास
बसवन्त (वश्या) पुत्र पारप्पा नगर हल्ली आयु 30, बेराड़, किसान, कोवलूर, जिला रायचूर।
भीम नाइक पुत्र वाबे नाइक, आयु 50, बेराड़, शेतसनदी, हेसरूर का निवासी (डम्बल)
2 वर्ष का सश्रम कारावास :
चेन्नर, पुत्र मरिथन्ना, आयु 50, लिंगायत, किसान, सिंगतलूर का निवासी (डम्बल)

अपराधहीन पाए जाने के कारण मुक्त :
वेंकन गोड़ा पुत्र सिद्धन गोडा, आयु 65, लिंगायत, गाँव का पटेल, हैसरू (डम्बल) (15) कैप्टन श्नीदर के द्वारा नारगुण्डा में 1 सितम्बर, 1858 को एक विद्रोही के अपराधी पर अभियोग की कार्यवाही। सजा 1 सितम्बर 1858 को दी गई।
24 अगस्त, 1858 :
रामचंद्र लक्ष्मण, बेतगिरि का कुलकर्णी
फकीर गौंडा पुत्र, बेतगिरि
भीमराव पुत्र वेन्कप्पा मजूमदार
सत्तार खाँ पुत्र हामिद खाँ, गदग का दीवान जी
माधवराव रामचंद्र, वकील, गदग का दीवान जी
रंगाराव जीवाजी मुण्जर्गी
8 सितम्बर, 1858
गुलाबअली खाँ पुत्र बहार अली खाँ

प्रमुख नेता

भास्करराव भावे, नरगुन्द के प्रमुख
भास्करराव, जिन्हें भावे परिवार के बाबा साहब के नाम से जाना जाता था, नरगुन्द के प्रमुख थे। उत्तरी कर्नाटक के सबसे पुराने राज्यों में से एक नरगुन्द राज्य की नींव शिवाजी के समय (17वीं शताब्दी) में रखी गई थी। 13 जून, 1882 को दादोली भावे की मृत्यु पश्चात उनका पुत्र भास्कर राव उनके उत्तराधिकारी हुए। उस समय उनकी आयु लगभग 25 वर्ष थी। भास्कर राव के पुत्र की 1843 में मृत्यु होने पर उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से गोद लेने की आज्ञा माँगी जिसे स्वीकार नहीं किया गया। 1853 में भास्कर राव ने इस प्रश्न को फिर से उठाया और एक और प्रार्थना-पत्र भेजा, परन्तु उसे भी अस्वीकार कर दिया गया (28 जून, 1854)। भास्कर राव ने और एक अनुस्वरण पत्र भेजा, जिसे अन्तिम रूप से कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स (न्याधिकरण निदेशक) ने 3 अक्टूबर, 1855 को रद्द कर दिया। भास्कर राव को "दक्षिणी मरहठा प्रमुखों मे सबसे बुद्धिमान" समझा जाता था। उनके व्यक्तिगत पुस्तकालय में संस्कृत के 4000 ग्रंथ थे, दुर्भाग्यवश ब्रिटिश फौजों को 1-2 जून, 1858 को नगर पर किये गए हमले के समय नष्ट हो गए।

युद्ध के दौरान नरगुन्द के प्रमुख अपने व्यक्तियों सहित बच निकले थे। ब्रिटिश शासन ने उनके सिर के लिए 10,000/- रू. का पुरस्कार घोषित किया। 2 जून, 1858 को बेलगाम के पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट, फ्रेंक साउटर ने प्रमुख को उनके अनुयायियों समेत तोरगल के जंगलों में गिरफ्तार कर लिया; वे लोगों तीर्थयात्रियों के भेष में पण्डरपुर जा रहे थे। प्रमुख को बेलगाम ले जाकर, अभियोग चलाया गया और मृत्यु दण्ड दिया गया। बेलगाम में उन्हें किले के मुख्य सुरक्षित कक्ष में रखा गया। 12 जून, 1858 को उन्हें बड़े ही निन्दनीय ढंग से नगर की सड़कों पर एक गाड़ी पर जिसे माहर सफाई वाले खींच रहे थे, चढ़ाकर हेस्टेक हिल पर ले जाया गया जहाँ फाँसी का तख्ता बनाया गया था। शाम को उन्हें दर्शकों की भीड़ की उपस्थिति में फाँसी पर लटका दिया। इस भयानक ढंग से मृत्यु दण्ड के दृश्य से दर्शकों के दिल दहल गए। रस्सी टूट गई थी और उनका शरीर जो अभी तक जीवित था, उस समय तक जमीन पर तड़पता रहा जब तक कि फंदा फिर से ठीक नहीं कर दिया गया। एच. जे. स्टोक्स लिखते है- "बेलगाम के निवासी गदर के सालों को बहुत समय तक याद करेंगे कि किस प्रकार नरगुन्द के ब्राह्मण प्रमुख को मृत्यु दण्ड दिया गया।" (मुंबई प्रेसीडेन्सी के बेलकाम जिले का ऐतिहासिक वर्णन (मुंबई 1870) (पृष्ठ 94)

तथापि, ऐसी जनप्रिय धारणा थी कि 'असली' बाबा साहब भावे तोरगण से बच निकले थे और बंकापुर चले गये थे जहाँ ये गुप्त रूप से अपने जीवन के अन्त तक रहे। वह कोई अन्य व्यक्ति था जिसे बाबा साहब समझकर पकड़ा गया और गलती से बेलगाम में मृत्यु दण्ड दे दिया गया।
बाबा साहब भावे के साथ जो लग गिरफ्तार किये गये वे थे-

गोविन्द नारायण उर्फ अण्णा परचुरे
(34 वर्ष की आयु, ब्राह्मण शिरही का निवासी- सांगली रियासत)
गंगाधर चिन्तामण उर्फ अण्णा सहसर बुद्धे (24 वर्ष की आयु, ब्राह्मण, शिरहही का निवासी, सांगली राज्य के क्लर्क)
बसप्पा पुत्र बालप्पा ताम्बे
(53 वर्ष की आयु, मरहठा, नरगुन्द प्रमुख की सेवा में नियुक्त सवार (बारगिर)
काशीराव पुत्र नेमाजी नलावडे
(60 वर्ष की आयु, मरहठा, नरगुन्द के निवासी, स्वयं सेवी सवार शिलेदार)
हनुमन्ता पुत्र मरितम्मा
(40 वर्ष की आयु, लिंगायत, नरगुन्द का निवासी, स्वयं सेवी सवार (शिलेदार)

उपरोक्त व्यक्ति नरगुन्द प्रमुख के मुख्य साथी और अनुयायी थे। उनकी गिरफ्तारी के तुरन्त बाद उन्हें बेलगाम ले जाकर आयोग के समक्ष प्रस्तुत किया गया। उन पर आरोप था "विद्रोह भड़काने और उसमें सहायक होने का" और ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध युद्ध करके मि. मैंनसन और अन्य लोगों ने भी आक्रमण करने के उद्देश्य से गाँव अमरगोल की ओर रवानगी की, जहाँ ब्रिटिश सेना डेरा डाले हुए थी और ले. मालकाम के आधीन ब्रिटिश सेवा के अनेक सवारों को निश्चय ही घायल करना था।

दक्षिण मरहठा प्रदेश के राजनीतिक प्रतिनिधि श्नीदर के न्यायलय ने बेलगाम में 21 जून, 1858 को उन्हें सजाएँ सुनाई। उसे 1857 को चौदहवें एक्ट के अन्तर्गत आयुक्त का पद दिया गया था, उसी हैसियत से उन्होंने इन अपराधियों को मृत्यु दण्ड, शासन द्वारा जब्त कर लिये जाने की सजाएँ दी। जून 1858 के अन्तिम सप्ताह में उन्हें धारवाड़ के एक प्रमुख सार्वजनिक स्थान पर सामूहिक रूप से फाँसी दे दी गई। प्रतिभूत न्यायाधिश को न भेजकर मजिस्ट्रेट को भेजे गए क्योंकि यह आवश्यक था कि महत्त्वपूर्ण जन-उद्देश्य आदि से सम्बन्धित मृत्यु दण्ड उस स्थान की सबसे प्रमुख जगह पर दी जाएँ न कि ऐसी सजा के लिए सामान्यतः प्रयोग में आने वाली जगह पर" (टी. ओलिग्वी, जिलाधीश धारवाड़ की ओर से टी. सी. लाफमैन, कार्यवाहक सत्र-न्यायाधीश, धारवाड़ को लिखा गया पत्र संख्या 874 वर्ष 1858 दिनांक 22 जून, 1858 एच. एफ. एम. के खण्ड प्रथम, पृष्ठ 448 एच.)

विष्णु हिरेकोप (विष्णु कृष्ण कुलकर्णी)
वह हिरेकोप गाँव के कुलकर्णी पद पर थे। नरगुन्द के विद्रोह में उन्होंने प्रमुख भाग लिया। वह विष्णु हिरेकोप ही थे जिन्होंने 29 मई, 1858 की रात सुरेबान में मैनसन का सिर काटा था। फिर वह भाग निकले। कोल्हापुर के आयुक्त, कर्नल जैकब, ने उन्हे पकड़वाने के लिए 200/- रू. का इनाम 7 जुलाई, 1858 को घोषित किया था। तत्पश्याचात् वह पकडे गए और उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया।

3 जून, 1858 को की गई घोषणा के अनुसार नरगुन्द राज्य को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया। प्रमुख को मिलने वाले सालाना 15140/- रू. के नकद भत्ते जो विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त होते थे छीन लिए गये।

 

बाबा साहब अपने पीछे, अपनी माता यमुना बाई (बिदन्श के दादाजी जोशी की पुत्र) आयु 60 वर्ष और पत्नी सावित्री बाई (आरा के माँजरेकर की पुत्री (आयु 35 वर्ष) को छोड गये थे। अपमान न सह पाने के कारण वे दोनों एक साथ मलप्रेमा नदी में गाँव साँगला के छोड़ समीप डूबकर मर गई। नदी के बहाव की ओर के गाँव बुदिहाक में उनकी लाशें पाई गई। उस गाँव के लोगों ने उनका अन्तिम संस्कार किया। उनके अन्त की कथा एक कन्नड गाथी काव्य में इस प्रकार व्यक्त की गई है :

हिन्दी अनुवाद
"दोनों चली गई और जंगल में भटकती फिरीं। हाथों में हाथ डाले वे चलती गई भूखी-प्यासी, अपने स्वामी की खोज में प्रयत्न निष्फल होते देखकर, उन्होंने यही सबसे अच्छा समझा कि पास की नदी की अतीत गहराइयों में सदा के लिए शान्ति पा जाएँ।"
(मि. कीज, जर्मन धर्म प्रचारक, ने कर्नल जार्ज मालकाम को इइस कन्नड़ गाथा काव्य के अंग्रेजी भाषानुवाद की एक प्रति दी थी। उपरोक्त उल लोक-गीत का 47वाँ पद है।)

अन्य विशेष व्यक्ति
बाबा साहब भावे के द्वारा बेलगाम के न्यायालय के समक्ष 9 जून, 1858 को दिये गये बयान में, जिसकी उन्होंने 10 जून, 1858 को बेलगाम में पुष्ट की, जो व्यक्ति आये थे-

भीमराव मुण्डर्गी और देसाई देसा यादव, निजाम की रियासत में दुरालडोनी के इनामदार, जब मैंने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध शस्त्र उठाने का निश्चय किया, मेरा साथ देने का वचन दिया था। निम्नांकित व्यक्तियों ने मेरी योजना (ब्रिटिश जनों पर आक्रमण) से सहमति व्यक्त की थी और उसे क्रियान्वित करने के लिए प्रेरित किया था-

वेन्का नाईक                  तिम्मा नाईक
दाये नाईक                   वेन्का गीरदास
भुजंग राव जाधव,             पुत्री प्रीतिराव भोंसले, जो नरगुन्द में निवास करता था।
अबाजी जगतप                सिद्धा गायकवाड़
काशीराम नलावडे             मातिया
काशीबा सेठ                 कोसवी शिन्दगे, सवार
भीमादही,                    ज्यादा (पैदल सैनिक)
सिद्ध खानपुर                 संकतल नाईक

इनके अतिरिक्त-कित्तुर नाईक, रामदुर्ग के आकिर क्षेत्र के रहने वाले और मेरे अधीन समस्त सिपाही, जो हथियारबन्द थे उन्होंने  मेरे प्रायस के लिए प्रेरणा दी थी। राघोपन्त लिमये बन्या बापू (साने) कृष्णजी पन्त दीवान जी (मत्कारी) चिन्तोपन्तऔर अन्य लोगों नें मेरी विद्रोह से सहमति प्रकट की थी, जो 29 मई, 1858 को लगभग 8 बजे रात्रि को राघोवा पन्त, कृष्णा जी पन्त मत्कारी के सहयोग से की थी।

गोपालप्पा गददा, अण्णा सहसबुद्धे (गंगाधर चिन्तामण)  अण्णा परचुरे, शिराही ताल्लुके का फड़नीस और बसाजी ताम्बे हनुमन्ता बरीगल और काशीराव नलावडे एवं लगभग चालीस सवार और विष्णु कुलकर्णी, हिरेकोप के और लगभग 250 तलवारों से सज्जित प्यादे, 250 मशालों से सज्जित तथा 50 या 60 लठैत। हिरेकोप के विष्णु ने कहा कि मैने श्रीमन मेन्सन को मार दिया है और उन्होंने मुझे उनका सिर और एक अन्य का सिर भेट किया।

सोमवार दिनांक 31 मई को भीमराव मुण्डर्गी का एक आदमी समाचार लाया कि मैं धैर्य के साथ चार दिन तक किले को सम्भाले रहूँ, इतने समय में वह सहायता के लिए व्यक्ति लेकर आ जाएगा। दुगलदोनिकर की ओर से मुझे कोई सहायता नहीं मिली। नरगुन्द के बहुत से सवारों पर मैंने 7000 रू. की नारगुन्द के कुछ शाहूकारों से सहयोग राशि एकत्रित की उसमें से 2000 रू. निम्नांकित को दिये।

 

रामचंद्र नरसिंहा, दीवान जी, गंगाधर चिन्तामण उर्फ अण्णा सहसरबुद्धे
गोपाल रामचंद्र और व्यंकटेश सिद्धश्वेर सबनीस

यह राशि उन्हें शिवांदी एवं अन्य व्यक्तियों में बाँटने के लिए थी (ये चारों व्यक्ति शिवन्दी, अस्तबल, प्यादे  वगैर के अधिपति थे) ये चारो मेरे (युद्ध से सम्बन्धित) आदेशों के वाहक थे। जो प्रमुख व्यक्ति मेरी रियासत के कार्य देखते थे वे हैं बन्याबापू साने : कृष्णाजी लक्ष्मण जोशी और राघोपन्त लिमये इतवार 30 मई को रात को कृष्णाजी पन्त कहीं भाग गए। सोमवार 31 को मैने रामराव पेठे और गोविन्दराव म्हैस्कर को 35 सवारों और 400 प्यादों के साथ मैंने भगोड़े कृष्ण जी पाल को पकड़ने के लिए भेजा। लेकिन मंगलवार को वे खाली हाथ वापस आ गए। (मंगलवार 1 जून को) ब्रिटिश सेना आगे बढ़ आई, तोप के गोले नगर में आकर गिरने लगे। यह देखकर कि एक गोला मेरे महल में आ गिरा है, मैंने अपनी पत्नी...... सावित्री बाई और माता यमुनाबाई को किले में भेज दिया। में नरगुन्द से. गा. चि. सहसरबुद्ध अन्ना परचुरे, बसाजी ताम्बो, हनुमत्ता बरीलाल और बाबा जी, पुत्र बसाजी ताम्बे को साथ लेकर चल पड़ा। चिक्का नरगुन्द के पास, बाबाजी जगताप, तोदर्गिकर के किलेदार, जो मेरे सेवक है, हमें मिले। यह किलेदार हमारे साथ साथ हो लिए। मैनें हनुमत्ता वारिगल को वापस लौट जाने के लिए आदेश दिया। क्योंकि हमारे साथ बहुत अधिक सवार थे। हम बाबीज जगतप के गाँव रामपुर गए। मिं. मैनसन की हत्या के दिन वेंकटराव भोंसले, शिलेदार, बाबाजी वाम्बे और भीमा (वह लम्बा आदमी जो मेरे साथ पकड़ गया था) मैरे साथ मौजूद थे। मेरे इलाके के शंकरप्पा देसाई, कलस का आठ आदमियों के साथ मेरी सेवा में था। मैनसन की हत्या के दिन वह मेरे साथ था कि नहीं, मुझे याद नहीं है। भीकाजी गोखले, मेरे दूसरे वकील, मैनसन की हत्या के दिन मेरे साथ थे। रामराव पेठे मेरे साथ सुरेबान नहीं गए। गदर के दिन रामराव पेठे मेरे साथ नहीं थे। भीमराव मुन्दर्गी की और से कल्लप्पा नरगुन्द में उपस्थित थे।

शहीद
भास्कर राव उर्फ बाबा साहब भावे, नरगुन्द के प्रमुख- 12 जून, 1858 को बेलगाम में सरेआम फाँसी दी गई)
गोविन्द नारायण उर्फ अण्णा परचुरे- जून, 1858 के अन्तिम सप्ताह में धारवाड़ में सरेआम फाँसी दी गई।)
गंगाधार चिन्तामण उर्फ अण्णा-  सहस्त्रबुद्ध धारवाड में जनता के समक्ष फाँसी पर लटकाया गया।
वासप्पा बाजप्पा ताम्बे - जून के अन्तिम सप्ताह में फाँसी पर लटकाया गया।
काशीराव मेमाजी नलवड़ - जून के अन्तिम सप्ताह में फाँसी पर लटकाया गया।
हनुमन्ता मरितम्मा  जून के अन्तिम सप्ताह में फाँसी पर लटकाया गया।
विष्णु कृष्ण कुलकर्णी- 1860 में सरेआम फाँसी दी गई।
यमुनाबाई (बाबा साहब भावे की माता)- मलप्रभा नदी में सागना ग्राम के पास साथ में बाबा साहब की पत्नी सावित्री बाई को साथ लेकर डूब गई। उनकी लाशें जून, 1858 में नदी के बहाव की ओर के ग्राम में पाई गई।
सावित्री बाई (बाबा साहब की पत्नी) -

10 जून, 1858 को बन्दूकधारी सैनिकों के द्वारा गोली से मारे गये-
लक्ष्मण जनार्दन               इमाम इस्माइल
राम तेल्ला                   बापू मल्ला
पिराजी हरी                  तुकाराम महीपति
खण्डू व्यंकट                 राघोबा लक्ष्मण
गुड्डू हुसैन                    फकीर मोहम्मद
फारस खाँ मोविस खाँ          बसप्पा दुमप्पा
सुबराव ज्योति बा             बाला येलगुन्डा
12 जून, 1858 को नरगुन्द में तोप से उड़ा दिये गये;
शिनप्पा उर्फ वेंकप्पैप्या देसाई, उम्बल और सुरतूर के सर देसाई 13 जून, 1858 को बन्दूकधारी सैनिकों के द्वारा नरगुन्द में गोली मार दी गई :
मालपा बालप्पा              गोविन्द सुल्ताना
बसप्पा शिन्दगी              रेहमान खान
मोहिउद्दीन काला
16 जून, 1858 को नरगुन्द में सरेआम फाँसी :
राघोपन्त लिमेय
18 जून 1858 को बन्दूकधारी सैनिकों के द्वारा नरगुन्द में गोली मार दी गई :
बसप्पा लिगंप्पा              बापू नाईक
लिंगी लक्षमणप्पा
लिप्पा भीमप्पा                 भीमा तिम्मप्पा
कृष्णाजी पन्त उर्फ बन्या बापू साने
दाऊ शिदोबा
सात वर्ष का सश्रम कारावास
रामा सिद्धु नाइक             राजा जुल फकीर
खादर सैय्याद बुदेन           वाम देवजी भोंसले
राघुबा परसुराम               लिंगप्पा परशुराम
चार वर्ष का सश्रम कारावास
बसवन्त परप्पा नगरहल्ली
तीन वर्ष का सश्रम कारावास
भीम नाइक            युल्लुजी सुबराव मोटे
दो वर्ष का सश्रम कारावास
नाना मारेथन्ना          शेख गुड्डू
दयामा गौडा (24 बेंत लगाने की सजा)
कृष्णाजी दलवाई        फकीरा लिंगप्पा अलगोड़ा
चेला मरिथन्ना
चौबीस बेंत लगाने की सजा
तिम्मा रंगा            जेम्मा सुलतान
पामा पुजारी           मुदकन्ना जेकन्ना
फकीरा येंकप्पा         गौरय्या यलप्पा
पिराजी चावन         बालू भीमाजी
पिराजी जेमाजी

 

धारवाड़ जेल में "राज्य बन्दी"के रूप में निरूद्ध
रामचंद्र लक्ष्मण कुलकर्णी
फकीर गौडा निलप्पा गौडा
भीमरा वैकप्पा मजूमदार
सत्तार खाँ हामदि खाँ
माधवराव रामचंद्र
रंगाराव जीवाजी मुण्डर्गी
गुलाब अली खान बहार अली खान

स्त्रोत :
मुंबई पुरलेखा अभिलेखागार पी. डी. खण्ड
1488 : खण्ड 29, पृष्ठ 9-13. 165
खण्ड 30, 23-24, 259-275, 283-297, 457-500, 555-574, 613-629
खण्ड 31 पृष्ठ 35-48, 177, 242-260
खण्ड 32, 147-177, 211, 347-357
खण्ड 32, 113-121, 413-447
खण्ड 35, 39-47
धारवाड़ के जिलाधीश का कार्यालय
(नवलगुन्द के मामलातदार के द्वारा नरगुन्द की स्थिति पर भेजी गई रपट दिनाँक 27, 28, 29 मई, 1858)
तमिलनाडु, पुरालखे, मद्रास
फोर्ट सेंट जार्ज, राजनैतिक गतिविधियाँ 9 फरवरी, 1858 एच. एफ. एम. के खण्ड प्रथम पृष्ठ 261-264, 443-448, 461-465
मुम्बई प्रेसीडेन्सी, प्रशासनिक वृत्त,
1857 पृष्ठ 1-56
1858-59, 57-84
बी. जी. हुलिकवि, नरगुन्द बण्डाय (कन्नड़ मं धारवाड़ : कर्नाटक विद्या वर्धक संघ 1985)
सोमशेखर इमरापुर जनपद हाडुगलल्ली नरगुन्द बण्डाय।
स्टॉक्स हिस्टोरीकल एकाउन्ट पृ. 94
(नरगुन्द विद्रोह लोक गीतों में) (कन्नड में)
धारवाड़, कर्नाटक विश्वविद्यालय, 1886) जैकब, वेस्ट्रन इण्यिया पृ. 231-262 परिशिष्ट (नरगुन्द विद्रोह पर कन्नड़ लोकगीत काव्यों का अंग्रेजी का अनुवाद)

कोप्पल का युद्ध

30 मई-1 जून, 1858
1858 : 24 मई भीमराव मुण्डर्गी का ब्रिटिश सुरक्षा गार्ड पर हम्मगी में आक्रमण।
1 जून, कोप्पल में युद्ध। ब्रितानियों ने कोप्पल का किला जीता।
भीमराव मुण्डर्गी और लगभग 100 आदमी युद्ध क्षेत्र में मारे गए।

भीमराव मुण्डर्गी एक महान नेता थे। वह 1857 में उतरीं कर्नाटक में स्वतंत्रता संग्राम के संगठनकर्ता थे। इन्होंने दक्षिण की कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के मध्य के क्षेत्र को ब्रिटिश सत्ता के जुए से स्वतंत्र करने के लिए संगठित योजना बनाई थी। इन्होंने 27 मई, 1858 को सार्वजनिक विद्रोह की तिथि निश्चित की थी, परंतु उसके पहले ही बिना पूर्ण तैयारी के 24 मई को सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ हो गया। बाद में भीमराव मुण्डर्गी के सामान में नाना साहब पेशवा की घोषणा के सारांश की बारह प्रतियाँ पाई गई, जिसमें वेतनदारों, सरकारी कर्मचारियों और दक्षिण के लोगों को संबोधित करते हुए उन्हें ब्रिटिश शासन के विरोध में उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया गया था।

कुछ राज्यों के प्रमुख यथा नरगुन्द और विभिन्न स्थानों के देसाई तुरंत ही स्वतंत्रता संघर्ष में सम्मिलित होने को तैयार थे, जबकि अन्य जैसे मिरज, सांगली, रामदुर्ग आदि के प्रमुख यह अधिक उचित समझ रहे थे कि सम्मिलित होने से पूर्व प्रतीक्षा करके प्रगति का निरीक्षण किया जाए। विभिन्न स्थानों पर युद्ध का सारा सामान एकत्रित कर लिया गया था।

ब्रिटिश भारतीय स्थानीय पैदल सैनिक पलटन के सिपाही जो विभिन्न स्थानों जैसे बेलगाम, धारवाड़ आदि पर नियुक्त थे उनसे संपर्क करके उन्हें निर्धारित दिन को खड़े होने का अनुरोध किया गया।धारवाड़ ज़िले के ब्रिटिश दल ने (भीमराव के सहयोगी) कंचन गौडा के किलेबन्द मकान की तलाशी ली। वह मकान तुंग भद्रा नदी के किनारे के गाँव हम्मिगी में, मुण्डगर्गी के दक्षिण दिशा में बारह मील दूर स्थित था। वहाँ बड़ी मात्रा में शस्त्र और युद्ध की अन्य सामग्री का भंडार बरामद हुआ उस पर आरक्षक नियुक्त कर दिया गया था। वहां भीमराव 70 व्यक्तियों के हथियार बंद सैनिकों के साथ बढे और (24 मई, 1858 को) हम्मिगी के ब्रिटिश आरक्षक पर आक्रमण करके शत्रु के संदेशवाहक खवास हुसैन को मार दिया। साथ ही सामग्री भंडार तथा कंचन गौडा को लेकर डम्बल की और बढे; वहाँ इन्होंने ब्रिटिश ख़ज़ाने पर हमला कर दिया। (बाद में गुन्टूर के सेन दयामा और हम्मिगी के लिंगोफोय लिंगे को ब्रिटिश लोगों ने 10 जुलाई 1858 को, हुसैन को 24 मई, 1858 को हत्या के आरोप में फाँसी पर चढ़ाकर मार दिया। इसी आरोप पर मानबासप्पा वीरभद्रप्पा को भी नवम्बर, 1858 में फाँसी दे दी गई। इस प्रकार भीमराव का सशस्त्र विद्रोह अपूर्ण तैयारी से प्रारम्भ हो गया था। भीमराव के सिर पर ब्रिटिश सरकार ने 5000 रू. का पुरस्कार घोषित किया था।

कर्नल मालकाम 250 घुड़सवार लेकर डम्बल के राष्ट्रभक्त सैन्य बल पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। यह फौजी दल आगे चलकर 400 जवानों का हो गया। इसी बीच भीमराव डम्बल से गडग की और बढे वहाँ इन्होंने अंग्रेजी डाक तार विभाग की चौकियों को तहस-नहस कर डाला क्योंकि वे भारतीय पक्ष के लिए हानिकारक सिद्ध् हो रहे थे। (धारवाड़ जिले के) गडग से वह निजाम की रियासत में कोप्पल की ओर बढे। (कोप्पल आजकल कर्नाटक की बेलारी जिले में है) इन्होंने आसानी से कोप्पल के किले पर अधिकार कर लिया (30 मई, 1858)। भीमराव की बढ़ती शक्ति को कुचलने के लिए ब्रितानियों ने मेजर हुगीज के अधिकार में बेलारी, रायचूर, धारवाड़ और हैदराबाद से अपनी सेनाएँ एकत्रित कीं। इन सेनानियों ने शीघ्रता से बढ़ते हुए कोप्पल पहुँच कर भीमराव के द्वारा अधिकार में लिए गए किले पर धावा बोल दिया। इसके पश्चात् जो युद्ध हुआ उसमे भीमराव के अतिरिक्त कंचन गौडा और लगभग सौ आदमी मारे गये और कोप्पल का किला ब्रितानियों के हाथ आ गया। कोप्पल के युद्ध के तुरन्त बाद ही ब्रिटिश जनरल फौजी अदालत ने बड़ी संख्या में युद्ध-बन्दियों और अन्य लोगों को अपराधी घोषित किया। अस्सी से अधिक लोगों को मृत्यु दण्ड, 40 को चौदह वर्ष का सश्रम कारावास, 8 से 5 वर्ष का सश्रम कारावास और 12 को एक वर्ष का सश्रम कारावास का दण्ड दिया गया। भीमराव मुण्डर्गी के एक गुमाश्ता भीमराव को तोप से उड़ा दिये जाने की सजा दी गई थी किन्तु बाद में उन्हेंे क्षमा कर दिया गया।

भीमराव का कोप्पल पर आक्रमण उस योजना का भाग था जिसके अन्तर्गत नरगुन्द के प्रमुख को नवलगुन्द धारवाड़ और पश्चिम स्थानों की ब्रिटिश चौकियों पर आक्रमण करना था और भीमराव को निजाम की रियासत में, कोप्पल में, अपना अड्डा स्थापित करना था।

प्रमुख नेता

भीमराव पुत्र रंगाराव मुण्डर्गी
ये देशस्थ ब्राह्मण कुलकर्णी सामन्त के नाडगौड़ा डम्बल के देसाई के पुश्तैनी मुतालिक विद्वान थे, यह अंग्रेजी धाराप्रावह बोल सकते थे। उत्तरी कर्नाटक के विद्रोह की व्यवस्था इन्ही के मस्तिष्क की उपज थी : एक जून 1858 को कोप्पल के युद्ध में मारे गए, उस समय उनकी आयु लगभग 35 वर्ष की थी। डम्बर क्षेत्र में भीमराव की प्रशंसा में वीरगाथा के कवित्त आज भी गाए जाते हैं।

भीमराव को पुरस्कार में, धारवाड़ जिला कार्यालय के बेनिहल्ली और हयातपुर गाँव और बेटेगरी में लगान मुक्त, कुछ क्षेत्र प्राप्त थे। ये सभी डम्बल क्षेत्र में ही स्थित थे और सबकी मिलाकर वार्षिक आय 2523 रू. थी। ब्रिटिश शासन ने उनकी सारी सम्पत्ति राज्याधीन कर ली।इनकी मृत्यु के पश्चात् इनकी सौतेली माता गंगाबाई (35 वर्ष) और दो विधवाएँ (1) जिरूबाई (30 वर्ष) और उसका पुत्र रंगाराव ( 9 वर्ष), (2) वेन्कुबाई (20 वर्ष) और इनकी पुत्री तुलसव्वा (3 मास ) थे। वंचित परिवार को ब्रिटिश सरकार ने 30 रू. प्रतिमास का जीवन-यापन भत्ता दिया।

कंचन गौडा पुत्र खान गौडा
ये लिंगायत धारवाड़ स्वर्गवासी सरनाड गौडा के दत्तक पुत्र थे, तथा शिरहही तथा हम्मिगी के देसाई भीमराव मुण्डर्गी की योजनाओं के अभिन्न सहयोगी थे, 1 जून, 1858 के कोप्पल के युद्ध में भीमराव के साथ ही मारे गए। उस समय इनकी आयु लगभग 40 वर्ष थी।

धारवाड़ ताल्लुके के ग्राम गोवन कोप के नाडगीर की हैसियत से कंचन गौडा को मालगुजारी में 761 रू. और भत्ता 1800 रू. प्रतिवर्ष अथवा 2561 रू. पूर्ण भाग प्राप्त होता था। इनकी समस्त सम्पत्ति ब्रिटिश शासन ने राज्याधीन कर ली।

कंचनगौडा की मृत्यु के पश्चात् बचे उनके परिवार के सदस्य थे-इनकी माता नीलव्वा (60 वर्ष), उनकी दो विधवाएँ चन्नव्वा (32 वर्ष) इनकी दो पुत्रियाँ (1) चनविरव्वा उर्फ जदव्वा (16 वर्ष) जिनका विवाह संगप्पा बास लिंगप्पा देसाई शोलापुर के अन्तर्गत नालेवाड़ के देसाई से हुआ था। (2) बसन्तव्वा (11 वर्ष) जिनका विवाह उसी स्थान के देसाई संगन बासप्पा से हुआ था; तथा दूसरी विधवा गुन्डव्वा (25 वर्ष) इनकी दो अविवाहित पुत्रियाँ उरव्वा (8 वर्ष) और निलव्वा (3 वर्ष) और इनका नवजात पुत्र खान गौडा (एक मास)। ब्रिटिश सरकार ने इस परिवार को 30 रू. प्रतिमास का जीवन यापन भत्ता दिया।

वेंकपय्या उर्फ शिनप्पा देसाई
देशस्थ ब्राह्मण डम्बल के देसाई : यह भीमराव मुण्डर्गी के अभिन्न सहयोगी थे, इन्हे नरगुन्द में ब्रिटिश शासन के आयोजित आयोग के द्वारा अपराधी घोषित करके मृत्यु दण्ड दिये जाने पर 12 जून, 1858 को तोप से उड़ा दिया गया। उस समय इनकी आयु 25 वर्ष थी। धारवाड़ जिला मुख्यालय के-डम्बल ताल्लुके के गाँव सोरातुर और कडद्री इनको पुरस्कार में मिले हुए थे जिनकी सालाना आय 6,739 रू. थी। उसकी सारी सम्पत्ति ब्रिटिश शासन ने राज्याधीन कर ली।

इनकी के मृत्यु के पश्चात् शेष इनके परिवार के सदस्य थे-इनकी दादी गायत्री बाई (60 वर्ष), रामाबाई (40 वर्ष) विधवा लक्ष्मीबाई (20 वर्ष) और उनकी नवजात कन्या (जिनका नाम ज्ञात नहीं हो सका) 3 मास। इस परिवार को ब्रिटिश सरकार ने 20 रू. प्रतिमास का जीवनयापन भत्ता स्वीकार किया।

अन्य विशेष व्यक्ति (उत्तरी कर्नाटक के विद्रोह में भाग लेने अथवा उसकी योजना में सहायक होने वाले।)

अप्पाजीराव लक्ष्मण (हेबली के जागीरदार)
बहुतराव शेणवी (यह धारवाड़ के एक अंग्रेज अफसर के सेवक थे, किन्तूर की और उपद्रव खड़ा करने का भार इन्ही पर था।)
बर्मा नाईक पवार (कोप्पल के)
बसप्पा (नरगुन्द के सवार)
भारभप्पा नाईक (भीमराव मुण्डर्गी जब कोप्पल की ओर बढ़ रहे थे तो वह उन्हें कोप्पल के विषय में स्थिति की सूचनायें भेजा करते थे।)
बिमिहल्ली, आनेगुन्दी के राजा के जमादार (यह राजा आनेगुन्दी की ओर से भीमराव मुण्डर्गी का सहयोग करते थे।)
चेन्ना, बेदर
आनेगुन्दी का राजा
(वह गंगावाडी पर आक्रमण करने के लिए भीमराव मुण्डर्गी का साथ देने वाले थे, परन्तु यह योजना सफल नहीं हो सकी क्योंकि इसके पहले ही कोप्पल में भीमराव मुण्डर्गी की मृत्यु हो गई। ब्रिटिश सरकार ने राजा की पेन्शन रोक देने का विचार किया क्योंकि भीमराव मुण्डर्गी की बगावत में वह भी संलिप्त थे।)
मुघोल के प्रमुख
(गदल किले और गदग में मट्ट में मोर्चाबन्दी करने का आरोप)
नारगुण्ड के प्रमुख
(धारवाड़ जिला मुख्लाय के उत्तरी और पश्चिमी भागों में स्वतन्त्रता स्थापित करने का आरोप।)
शोरापुर के प्रमुख
(अपने क्षेत्र में स्वाधीन शासन स्थापीत करने का आरोप)
तोरगुल के प्रमुख
(नारगुण्ड के प्रमुख का सहयोगी)
चिकोडी के प्रमुख
गदग के देसाई
गोकाक के देसाई
जहिहल के देसाई
जेनापुर के देसाई
शिरशेगी के देसाई
दौलता
(एक संदेश वाहक और भीमराव मुण्डर्गी के सूचना वाहक)
फकीरप्पा हेब्बाल, सातार निवासी
(यह हेम्मगी के देसाई के ऐेेजन्ट थे, मुंबई और हेम्मगी के मध्य यह निरन्तर, आया जाया करते थे, 5, जून 1858को गिरफ्तार किए गए और सातारा जेल में निरूद्ध किए गए।
गोविन्दप्पा गराड़, संकेश्वर निवासी
गुरूनाथ राव बापू ("पर्याप्त और विश्वसनयी कारणों से" इन्हें धारवाड़ जेल में 1 जुलाई, 1858 को व्यक्तिगत रूप से निरूद्ध किया गया।)
गुरूराव हावेरी, धारवाड़ के (सबनूर के नवाब के पुत्र खैगमियां का साथ देने के लिए धारवाड़ में व्यक्ति एकत्रित करने और सबनूर से विद्रोह खड़ा करने का आरोप।)
कैन्चप्पा मुद्दी, शिवपुर निवासी
खैरामिया, नवाब सबनूर के पुत्र
(देखें उपरोक्त गुरूराव हावेरी के अन्तर्गत मानेबासप्पा, विरमदुप्पा का पुत्र, हेम्मगी का एवं अन्य का पुलिस पटेल।)
(24 मई, 1858 को हेम्मगी में खवास हुसैन को मार दिया जो ब्रिटिश शासन को सूचनाएँ पहुँचाने का कार्य करते थे; नवम्बर 1858 को फाँसी।)
मंगशेराव शेणवी
(बहुतराव शेन्वी के सहयोग के लिए कित्तू की ओर से उठ खड़ा होने का आरोप)
मोहिउद्दीन नाइक, कोप्पल निवासी।
(कोप्पल के किले को अधिकार में लेने में महत्त्पूर्ण भाग लिया था।)
नरहरि
(भीमराव मुण्डर्गी के लेखाकार एवं संदेशवाहक)
नारायण वझे उर्फ कृष्णाजी पन्त
(लेखाकर वर्ग में व्यक्ति एकत्रित करने और गुरूराव हावेरी की सहायता करने का प्रयास कर रहे थे, परन्तु जून, 1858 को अन्तिम सप्ताह में कलश में गिरफ्तार कर लिए गए। इसके पूर्व  कदाचित 1850 में इन्हे विद्रोही गतिविधियों के कारण देश निकाला दिया गया था।)
पांडुरंगराव कृष्णा, हेवली के जागीरदार
राघवेन्दराव
(ब्रिटिश की स्थानीय पैदल सैनिक पल्टन जो धारवाड़ में स्थित थी के साथ गुप्त रूप से साँठ-गाँठ करना।)
राजा नाईक, कोप्पल निवासी
रामचंद्र राव रघुनाथ, हेब्ली के जागीरदार
शेषगिरि राव (धारवाड़ के)
(धारवाड़ स्थित ब्रिटिश स्थानीय पैदल सैनिक पल्टन के साथ गुप्त साँठ-गाँठ करना।)
श्रीनिवास राव, धारवाड़ के वकील
(भीमराव मुण्डर्गी के हर एक प्रकार के काम में सहायता करते थे।)
श्रीनिवास राव नरसिम्हा
(गदग के मामलातदार, मार्च, 1858 में ब्रिटिश सरकार ने इनका स्थानान्तरण करके दूसरे ताल्लुके में भेज दिया था। क्योंकि ऐसा संदेह था कि वह भीमराव मुण्डर्गी के निकट सम्पर्क में थे।)
सोण्डूर जमींदार
(इनकी दस तोपें ब्रिटिश सरकार के आदेश से विस्फोट द्वारा नष्ट कर दी गई थी।)
तम्मा
(ब्रितानियों के द्वारा बन्दी बनाए गए।)
थोटन गौडा कोवलूर के पाटिल
वेंकटराव देशपान्डे, धारवाड़ के
(पहले वह गोकक के मामलातदार थे, भीमराव मुण्डर्गी के अभिन्न मित्र; गोकक की ओर विद्रोह फैलाने के लिए वह गोकक के देसाई से जाकर मिलने वाले थे।)
यशवन्त राव जठार, धारवाड़ निवासी
(जेनापुर के देसाई के साथ बांगलकोट की ओर जाकर वहाँ उपद्रव करने वाले थे।)
(मिरज सांगली, मरादुर्ग और जमखिण्डी के प्रमुख विद्रोह के भली प्रकार फैल जाने के पश्चात् उसमें सम्मिलित होने वाले थे।)

शहीद
जून, 1858 को कोप्पल के युद्ध में मारे गए-

भीमराव रंगाराव मुण्डर्गी
कंचन गौडा खान गौडा
और लगभग 100 अन्य जून, 1858 में कोप्पल के साधारण फौजी अदालत के द्वारा मृत्यु दण्ड और उनका क्रियान्वयन।
(बन्दूकधारी सेना द्वारा गोली से मारे गए/फाँसी पर लटकाए गए/तोप से उड़ाये गए।)

नाम तथा ग्राम
वेंकप्पा उर्फ शिनप्पा डम्बल के देसाई
(12 जून, 1858) (और भी देखें नरगुन्द के अन्तर्गत)
मानेवासप्पा, वीरभद्रप्पा, हम्मिगी निवासी (नवम्बर, 1858)
मोईउद्दीन नाईक, कोप्पल (जून, 1858)
(निम्नांकित युद्ध बन्दी, जो कोप्पल के युद्ध में पकड़े गये थे, उनका अभियोग आम फौजी अदालत के द्वारा पूर्ण किया गया और वे बन्दूकधारी सेना के द्वारा गोली से उड़ा दिये गये। (जून 1858)

नाम

ग्राम

लग्गा

कुर्ला हल्ली

गिरियन्ना

कुर्ला हल्ली

लक्ष्मणा

कुर्ला हल्ली

हनुमन्ता

कुर्ला हल्ली

बरमा

कुर्ला हल्ली

हलगिया

कुर्ला हल्ली

भीमा

कुर्ला हल्ली

मुल्ला

कुर्ला हल्ली

कजाह

कुर्ला हल्ली

बरमा

कुर्ला हल्ली

दुर्गा

कुर्ला हल्ली

हुसैन साहब

कुर्ला हल्ली

मुल्ला

कुर्ला हल्ली

हामिद साहेब

कुर्ला हल्ली

हुसैन साहेब

कुर्ला हल्ली

हयात साहेब

कुर्ला हल्ली

फकीर साहेब

कुर्ला हल्ली

उकुन्दा

कुर्ला हल्ली

रंग्गा

कुर्ला हल्ली

तिम्मा

कुर्ला हल्ली

पोन्गारि

कुर्ला हल्ली

रंगा

कुर्ला हल्ली

लिंगा

कुर्ला हल्ली

भीमा

कुर्ला हल्ली

हुसैन साहब

कुर्ला हल्ली

बाबा साहब

कुर्ला हल्ली

हरिया साहब

कुर्ला हल्ली

इमाम सहाब

कुर्ला हल्ली

हन्ना गौडा

गंगापुर

हनुमण्णा

रायती

माल्या

वादरहट्टी

हणमा

वादरहट्टी

बसय्या

वादरहट्टी

रामण्णा

सिंगतलपुरा

चन्ना

सिंगतलपुरा

बनी साहब

हम्मिगी

जीवन साहब

हम्मिगी

यल्या

हम्मिगी

उरवी

हम्मिगी

करयण्णा

हम्मिगी

करका

हम्मिगी

उरवी

हम्मिगी

लिंगा

हम्मिगी

यल्या

हम्मिगी

गरप्पा

हम्मिगी

चन्नावीरप्पा

हम्मिगी

भीमण्णा

हम्मिगी

बरमप्पा

नोवली

हिरियप्पा

हेसूर

गुरडा

हेसूर

लिंग

हरपनहल्ली

वसवा

मुन्डवार

वसय्या तलारी

तहरारगी

जूनाह

हणीगामी

दाऊद साहब

हन्कतपुर

लक्ष्मण

बागेबाड़ी

शिद्धा

बागेबाड़ी

हनुमण्णा

बागेबाड़ी

वल्लदास

बागेबाड़ी

तम्मण्णा तलार

येसवूर

तम्मय्या

येसवूर

मुडरंगा

येसवूर

हनुमण्णा

येसवूर

पेरू

येसवूर

मुदल्लानेर

कुरन

उरवी

कम्पली

चन्नाण्णा

बेटेगेरी

भीमप्पा

हिरेन्दवाल

अवण्णा

हन्दीगोनूर

हयात साहब

बन्नूर

सईद बुदीन

बन्कापुर

बसवण्णा

नवलगुन्द

तम्मण्णा

कुकनूर

बसय्या

कुन्दगोल

भीमा

ककूर

मकूदम

(फाँसी)

ले. क. मालकाम के द्वारा 8 जुलाई, 1858 को किए गए अभियोग की कार्यवाही जिसके अन्तर्गत 2 व्यक्ति जिन पर आरोप था कि सोमवार 24 मई, 1858 को दोपरह को उन्होंने ग्राम हम्मिगी में प्रवेश किया.....और हुसैन आदि की हत्या के लिए उकसाया। वे उन चार में से दो थे जिन्होंने मृतक को पकड़कर हम्मिगी के देसाई के पास प्रस्तुत किया था। उनको 10 जुलाई 1858 को फाँसी लगाकर मार देने की सजा दी गई।

सन दयामा, पुत्र कन्चप्पा, आयु 32, लिंग्गायत गुमगूर निवासी, ताल्लुका डम्बल

लिंगाफोय लिंगये, आयु 18, ढेड, डम्बल ताल्लुके के हम्मिगी के निवासी

बन्दी

(कोप्पल में आयोजित आम फौजी अदालत जिसमें कोप्पल के युद्ध में बनाऐ गए बन्दियों पर अभियोग चलाया गया, जून, 1858 को निम्नांकित सजाएँ सुनाई गई।)
चौदह वर्ष का सश्रम कारावास

नाम

गाँव

हन्सप्पा

बीमा हल्ली

मानप्पा

बीमा हल्ली

इमाम साहब

हुरहल्ली

हनुमान

कारगोहल्ली

नलयक गौडा

हौजनी

केन्चा

सिंगतलूर

जंगी

कोवलूर

फकीर साहब

कोवलूर

कासिम

बेनानूर

मोहिल

बेनानूर

लौना

हलकीपुर

कुक्का

मत्तूर

वेन्का

डुदगल

बरमा

बेटंगेरी

तम्मा

बेटंगेरी

बरमा

बेटंगेरी

बलिग्या

बेटंगेरी

इमाम साहब

बेनानूर

इमाम साहब

हल्लीगुडी

बन्दगी

हल्लीगुडी

पत्ता

हल्लीगुडी

फकीरा

हल्लीगुडी

हीरा

हल्लीगुडी

बदमा

चेलुवन्गी

बन्दा

चेलुवन्गी

काले साहब

बिमनूर

बेन्का

जलिहल

हेरा

जलिहल

वेन्का

जलिहल

सुना

जहिहल

मुदका

तावरगेरी

हनुमा

तावरगेरी

येल्ला

तावरगेरी

निम्बा विमनूर

तावरगेरी

जम्बा

तावरगेरी

दीमा

कोवसूर

काल्या

कोवसूर

हनुमा

कोवसूर

पुरशा

कोवसूर

हागम बेगा

नारगनहल्ली

पाँच वर्ष का सश्रम कारावास

रामा

वुदहट्टी

गोरनेनगा

गुमगुर

रंगा

हनोलघट्टी

सैय्यद हामिद

मुन्दर्गी

सैय्यद हुसैन

मुन्दर्गी

सिद्धप्पा

गुडनूर

दादा

हनुमान हल्ली

बासप्पा

 

एक वर्ष का सश्रम कारावास

दुर्गा

हनुमान हल्ली

बल्ला

हनुमान हल्ली

हेग्गा

हनुमान हल्ली

हेग्गा

हनुमान हल्ली

हिरगा

डम्बल

हुल्गा

हम्बी

सिदला

कन्तुर

जनुमा

हम्मिगी

दुर्गा

हम्मिगी

दुर्गा

कुरहल्ली

करीबशा

 

गल्लेग्या

सिदनहल्ली

मुदप्पा

सिदनहल्ली

भीमराव गुमाश्ता अथवा भीमराव मुण्डर्गी के प्रधान लेखक को तोप से उड़ाने की सजा दी गई थी, परन्तु बाद में वह सजा माफ कर दी गई।

फकीरप्पा हेवल्ल, हम्मिगी निवासी (सातारा जेल में गुरूनाथ राव बापू धारवाड़ जेल में निरूद्ध)

ले. कर्नल मालकाम के द्वारा कलादगी में 19 और 28 जुलाई को लगाई गई अदालत ने 2 वर्ष का सश्रम कारावास का दण्ड दिया।

सिद्ध पुत्र बरमन्ना, आयु 30, धनगर।

हरीगिर के शेतसनदी

युद्ध बन्दियों के स्थान

कुलहिल्ली

हिरेन्दवाल

हल्लीगुडी

गंगापुर हन्दीगोलूर

चेलूवन्गी

 

रैयतसी बन्नूर

बिम्नूर

 

वादरहट्टी

बन्कापुर

नाहिहल

सिंगतलर

नवलगुन्द

तावरगेरी

नोवेली

कुकनूर

कोवरूर

हसुर

कुन्दगोल

नारगन हल्ली

हरपनहल्ली

कुकूर

वुदनहट्टी

मुन्दवार बीमाहल्ली

गुमगूर

 

तहरारगी

कुरहल्ली

हनोलघट्टी

हनीगामी

करगो हल्लो

मुर्न्दगी

हन्कतापुर

हौजानी

गुडनूर

बागेवाडी

कोवलुर

हनुमान हल्ली

यसपुर

बेनानुर

कन्तूर

कुनर

हल्कीपुर

हम्बी

कम्पली

मत्तूर

डम्बल

बटसेरी

डडगल

हम्मिगी

सिदनहल्ली

 

 

स्त्रोत :

तमिलनाडु, पुरालेख अभिलेखागार मद्रा, फोर्ट सेन्ट जार्ज, न्यायिक परामर्श :
1858 : 5-1-1858, 8-1-1858, 1-6-1858. 8-6-1858, 15-6-1858, 2-7-1858, 20-7-1858, 27-7-1858.
1859 : 24-6-1859, 12-8-1859, 26-8-1859, 16-9-1859.
1862 : 2-6-1862

बम्बई पुरालेख, अभिलेखागार पोलिटिकल डिपार्टमेन्ट (राजनीतिक विभाग) खण्ड
1858 : खण्ड 29 पत्र दिनाँक 5-6-1858
खण्ड 32 पृष्ठ 167, 237-249, 239
खण्ड 33, 151-166, 645-667
खण्ड 35, 39-45
खण्ड 36, 230-238
मुंबई जिला गजटिअर खण्ड 22 : धारवाड़ (1884)
मद्रास दिला गजटिअर बेलारी (1904)
एच. एफ. एम. के. खण्ड 1 पृष्ठ 266-272, 405-407, 419-422, 433-442, 449-462, 468-474.
एफ. एस. एच. खण्ड 2 पृष्ठ 112-115
एस. एम. एच. एफ. एम. आई. खण्ड 1 पृ. 344-346
बेटिंग्टन, मुंबई प्रेसीडेन्सी में गदर को दबाये जाने के सम्बन्ध में रफ नोट्स (1865)
जैकब, पश्चिमी भारत
रेगानी, निजाम-ब्रिटिश रिलेशन्स पृ. 317-318 वेस्ट, एक संस्मरण

 

 

 

 

 

 
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